Tuesday 15 July 2014

कांग्रेस

दिखावटी सक्रियता   
  Fri, 21 Feb 2014

यह दयनीय है कि जब आम चुनावों की घोषणा किसी भी दिन होने ही वाली है तब केंद्र सरकार ऐसे अनेक फैसले ले रही है जिन पर अमल की संभावनाएं नहीं नजर आ रही हैं। यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार ने विगत दिवस जो फैसले लिए वे समय रहते क्यों नहीं लिए गए? बात चाहे सच्चर कमेटी की सिफारिशों के तहत समान अवसर आयोग के गठन को मंजूरी देने की हो अथवा 7200 किलोमीटर लंबाई की सड़कों को राजमार्ग बनाने की या फिर नया वन क्षेत्र तैयार करने की-ये सारे फैसले इसलिए दिखावटी ही कहे जाएंगे, क्योंकि केंद्र सरकार चाहकर भी इनके अमल की प्रक्रिया को गति देने में सक्षम नहीं हो सकती। कोई आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार की ओर से इन फैसलों को अपनी उपलब्धियों की सूची में दर्ज कर लिया जाए, क्योंकि हाल के कुछ फैसलों के संदर्भ में ऐसा ही किया गया है। यह बात और है कि इनमें से अभी कुछ फैसले कागजों पर ही हैं। एक विचित्र बात यह भी है कि कैबिनेट ने कोयला नियामक के गठन को तो मंजूरी दे दी, लेकिन बिजली संयंत्रों को कोयले की आपूर्ति के संदर्भ में कोई फैसला नहीं कर सकी। ऐसा तब हुआ जब यह जगजाहिर है कि बिजली कंपनियां कोयले की कमी से जूझ रही हैं। एक तथ्य यह भी है कि केंद्र सरकार की नीतिगत पंगुता के चलते राजमार्गो, बंदरगाहों और बिजली संबंधी सैकड़ों करोड़ रुपये की परियोजनाएं एक अर्से से अटकी हुई हैं। इन अटकी परियोजनाओं ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के साथ ही प्रगति की रफ्तार को भी रोकने का काम किया है।
हैरान करने वाली हकीकत यह है कि केंद्र सरकार तब भी नहीं चेती जब उसे बार-बार यह याद दिलाने की कोशिश की जाती रही कि अटकी हुई परियोजनाओं के कारण अर्थव्यवस्था की प्रगति प्रभावित हो रही है। चेतने के बजाय उन लोगों को झिड़कने का काम किया गया जिन्होंने केंद्र सरकार से फैसलों में तेजी लाने का आग्रह किया। सरकार की ओर से अर्थव्यवस्था के संकट के लिए तरह-तरह की दलीलें दी जाती रहीं। इन दलीलों में कुछ आधार हो सकता है, लेकिन किसी को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार के स्तर पर वे फैसले भी क्यों नहीं लिए जा सके जो पूरी तरह उसके हाथ में थे और जिन्हें अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक माना जा रहा था? अब तो इतनी देर हो चुकी है कि जो फैसले लिए भी जा रहे हैं उनका कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आने वाला। इसका कोई मतलब नहीं कि हाल में कुछ परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई गई है, क्योंकि मौजूदा माहौल में इसकी उम्मीद बिल्कुल भी नहीं कि उन्हें आगे बढ़ाने का काम सही तरह से हो सकेगा और देरी के दुष्परिणामों से बचा जा सकेगा। किसी को यह बताना चाहिए कि आखिर पिछले कार्यकाल के मुकाबले इस कार्यकाल में राजनीतिक रूप से कहीं अधिक सशक्त नजर आने वाली मनमोहन सिंह सरकार देश को सही दिशा देने में नाकाम क्यों रही? केंद्रीय सत्ता की नाकामी अब एक सच्चाई है। कितने भी दावे क्यों न कर लिए जाएं, नाकामी का दाग मिटने वाला नहीं है। दुर्भाग्य से नाकामी की यह कहानी हर मोर्चे पर नजर आ रही है।
[मुख्य संपादकीय]
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अधूरा हिसाब  

 Sat, 04 Jan 2014

दस सालों में तीसरी बार और अपने कार्यकाल के आखिरी समय मीडिया के सवालों का जवाब देने आए प्रधानमंत्री के पास कहने-बताने को बहुत कुछ था। उन्होंने तमाम सवालों के जवाब भी दिए, लेकिन शायद ही कोई जवाब ऐसा रहा हो जो जनता को संतुष्ट करने लायक रहा हो। ऐसा लगता है कि शायद इसी कारण उन्होंने भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के खिलाफ तीखा हमला बोला। इस पर आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने जोरदार पलटवार किया। यह प्रेस कांफ्रेंस इसलिए नहीं थी कि प्रधानमंत्री से भविष्य की राजनीतिक चुनौतियों के बारे में जाना जा सके। यह निराशाजनक है कि प्रधानमंत्री अपनी सरकार की नाकामियों पर किसी भी सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दे सके। यह स्वाभाविक ही था कि उनके सामने सबसे ज्यादा सवाल भ्रष्टाचार को लेकर उठे, लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से यह कह दिया कि जो भी घपले-घोटाले हुए वे संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में हुए। नि:संदेह ऐसा ही हुआ, लेकिन क्या तथ्य यह नहीं कि इन घोटालों का खुलासा संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में हुआ? भले ही प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के मामले में यथोचित कार्रवाई करने का दावा कर रहे हों, लेकिन तथ्य यह है कि उन्होंने कथित तौर पर जो कार्रवाई की उससे न तो देश की जनता को संतुष्टि मिली और न ही भ्रष्ट तत्वों के दुस्साहस पर लगाम लगी और शायद यही कारण है कि घपले-घोटालों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं। प्रधानमंत्री ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों पर जिस तरह यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली कि उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं और उन्हें पता करने का समय नहीं मिला है उससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के प्रति उनकी अनिच्छा और सीमाओं का ही रेखांकन हुआ।  प्रधानमंत्री अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं और उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह तीसरी पारी के लिए दावेदार नहीं हैं, लेकिन वह यह साफ नहीं कर सके कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिनके चलते वह मैदान छोड़ रहे हैं? विचित्र यह भी है कि वह अपने दूसरे कार्यकाल की एक भी उपलब्धि का उल्लेख नहीं कर सके। वह इसका भी कोई ठोस जवाब नहीं दे सके कि उनके नेतृत्व में कम से कम आर्थिक मोर्चे पर जो कुछ अर्जित किया जाना था वह क्यों अर्जित नहीं किया जा सका? नाकामी की यह कहानी तब लिखी गई जब प्रधानमंत्री स्वयं एक ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री हैं। उनके नेतृत्व में आर्थिक सुधार जिस तरह अटके रहे उससे देश-दुनिया में यही संदेश गया कि केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने और विकास की प्रक्त्रिया को गति देने के प्रति गंभीर नहीं। मनमोहन सिंह ने महंगाई रोकने के मामले में अपनी नाकामी तो स्वीकार की, लेकिन देश की जनता को यह अच्छी तरह से स्मरण है कि अभी तक किस तरह रह-रहकर यह आश्वासन दिया जाता था कि महंगाई तो चंद दिनों की ही बात है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह सवालों के जवाब दिए उससे उन्होंने खुद को एक नाकाम शासक के रूप में ही पेश किया। यह बात और है कि उन्होंने अपनी गलतियां स्वीकारने से इन्कार कर दिया। भले ही उन्हें यह उम्मीद हो कि इतिहास उनके प्रति दयालु होगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इतिहास वर्तमान से अलग नहीं होता।

डूबती नाव बचाने की कवायद  
 Sun, 26 Jan 2014

राहुल गांधी के नौ हथियार, दूर करेंगे भ्रष्टाचार। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का यह नया नारा राहुल गांधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सर्वाधिक गंभीर साबित करने की एक कोशिश है। हाल की एआइसीसी बैठक में भी इन्हीं नौ हथियारों पर सर्वाधिक चर्चा हुई है। निश्चित तौर पर राजनीतिक प्रक्त्रिया में नारों की भी अहम भूमिका होती है, लेकिन क्या वाकई संप्रग-2 भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर रही है? क्या वास्तव में ऐसे नारे कांग्रेस की नैया डूबने से बचा सकते हैं?  दरअसल जिन नौ कानूनी प्रावधानों के जरिये भ्रष्टाचार को खत्म करने का दावा किया जा रहा है उनमें से तीन कानून बन चुके हैं, जबकि छह अभी लंबित विधेयक हैं। कानून में सूचना के अधिकार की बात करें तो यकीनन इस कानून का प्रभाव दिखा है। कई खुलासे भी हुए हैं, लेकिन जब राजनीतिक दलों को इसके दायरे में लाने की चर्चा हुई तो राहुल गांधी की चुप्पी और कांग्रेस की सहमति के बीच पार्टियों के विरोध के चलते राजनीतिक पारदर्शिता की उम्मीद अधूरी ही रह गई। लंबे इंतजार के बाद संसद के बीते शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पर मुहर तो जरूर लगी, लेकिन लोकपाल की नियुक्ति जैसा बुनियादी काम ही अभी तक नहीं हो सका है। इसी तरह याद नहीं आता कि काला धन निरोधक कानून के तहत भी अब तक किसी बड़ी मछली को पकड़ा गया हो?  उधर छह लंबित विधेयकों को पार्टी के नारे का हिस्सा बनाना केवल राजनीतिक श्रेय लेने की कोशिश भर है, क्योंकि इन्हें पहले संसद में पारित कराना होगा। केवल तभी कानून के तौर पर यह सब अपना प्रभाव छोड़ सकेंगे। वैसे लंबित विधेयकों का राजनीतिक श्रेय लेना हो तो महिला आरक्षण जैसे विधेयकों का श्रेय कई सरकारें ले सकती हैं। वैसे भी भ्रष्टाचार विरोधी इन लंबित विधेयकों को पारित कराने के लिए सरकार को आखिरी सत्र तक क्यों रुकना पड़ा? बीते साढे़ नौ वषरें में ऐसे कानून क्यों नहीं बन सके? व्हिसिल ब्लोअर विधेयक दो वषरें से राज्यसभा में लंबित क्यों है? आखिर क्यों सिटिजन चार्टर विधेयक की वर्ष 2011 में पेश होने के बाद सुध नहीं ली गई? जब मल्टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश, महिला सुरक्षा, भारत-अमेरिका परमाणु करार जैसे कई मामलों पर तेजी से विधेयक पारित हो सकते हैं तो भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक क्यों नहीं? जाहिर है यहां बात सुविधा और इच्छाशक्ति की है।  इन सबके बीच, सबसे अहम सवाल यह भी है कि क्या राहुल गांधी वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं? यदि हां तो जब संप्रग-2 के शासनकाल में एक के बाद एक घोटाले और अनियमितता के मामले सामने आते रहे तब राहुल गांधी मौन क्यों रहे? हालांकि दागी नेताओं को बचाने वाले अध्यादेश को बकवास बताकर फाड़ने की बात करके राहुल गांधी ने यकीनन अपनी गंभीरता दर्शाई थी। लोकपाल विधेयक को पारित कराने का श्रेय भी पार्टी राहुल गांधी को ही देती है। नतीजा चाहे भी हो, लेकिन आदर्श सोसाइटी मामले में भी राहुल पुनर्विचार की बात करते हैं। मौजूदा स्थिति में भ्रष्टाचार विरोधी इन सारे विधेयकों को एक साथ लाने के पीछे भी राहुल गांधी का ही दबाव बताया जाता है। लेकिन क्या यह सब पर्याप्त है? याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर सरकार के आधा दर्जन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा है। 2जी, कोयला ब्लॉक आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, वीवीआइपी हेलीकॉप्टर खरीद, रेलवे घूस, रॉबर्ट वाड्रा संपति विवाद जैसे ढेरों मामले बीते पांच वर्ष छाए रहे हैं। सर्वोच्च अदालत, मीडिया, विपक्ष और कैग जैसी संस्थाएं लगातार सरकार को कठघरे में खड़ी करती रही हैं, जिसके चलते संसदीय सत्रों का बड़ा हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। स्वयं प्रधानमंत्री भी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बीच भ्रष्टाचार के मोर्चे पर अपनी नाकामी स्वीकार चुके हैं। उधर आगामी लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का बड़ा चुनावी मुद्दा भी भ्रष्टाचार ही होगा। भ्रष्टाचार के विरोध से प्रारंभ हुआ आंदोलन भी अब आम आदमी पार्टी की शक्ल में एक बड़ी राजनीतिक चुनौती बन चुका है। पिछले 2-3 वषरें में विपक्ष द्वारा कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय साबित करने की पुरजोर कोशिश की गई है। सोशल मीडिया में इसका प्रभाव दिखता भी रहा है। यह भ्रष्टाचार ही है, जो एक मुद्दे के तौर पर संप्रग-3 के सपने को पटरी से उतारता प्रतीत होता है। हालांकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सिर्फ कांग्रेस को कोसना भी उचित नहीं होगा। राजनीतिक भ्रष्टाचार हर दल के लिए स्वीकार्य है। येद्दयुरप्पा की भाजपा में वापसी की खबर इसका ताजा उदाहरण है। अन्य दल भी इससे अछूते नहीं हैं।  वैसे एआइसीसी बैठक में भ्रष्टाचार के मोर्चे पर राहुल एंग्रीयंगमैन जैसी आक्रामक भूमिका में नजर आते हैं। भरोसा दिलाते हैं कि लंबित छह विधेयकों के पारित होने पर भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। हालांकि इस पर फिलहाल भरोसा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मामला सामाजिक सोच और राच्य प्रशासन जैसी जटिलताओं से भी जुड़ा है। फिर भी उनकी इस आक्रामकता से कार्यकर्ताओं के मनोबल पर सकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों पर राहुल ऐसी आक्रामकता पहले भी दिखाते तो शायद बेहतर होता। बहरहाल, राहुल गांधी के सामने अगले तीन महीनों में स्वयं को भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर साबित करने की बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में यह नारा चुनावी महासमर में कांग्रेस की कितनी मदद करता है, चुनावी नतीजों तक इसका इंतजार रहेगा।


जंगल-जंगल बात चली है 
 नवभारत टाइम्स | Jan 27, 2014,
यूपीए शासन के पिछले दस वर्षों में 6 लाख एकड़ से ज्यादा जंगल विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गए। इसके अलावा इसी अवधि में 4 लाख एकड़ से ज्यादा जंगल में तेल और खनिज पदार्थों की संभावनाएं तलाशने की इजाजत दे दी गई। इतना ही नहीं, करीब 8 लाख एकड़ जंगल में किसी न किसी तरह की परियोजनाएं लगाने के प्रस्ताव केंद्र तथा राज्य सरकारों के विचाराधीन हैं। इन सबको जोड़ लिया जाए तो विकास की भेंट चढ़ने वाले जंगलों का कुल रकबा 26 लाख एकड़ से भी ज्यादा हो जाता है, जो पूरे पंजाब राज्य का करीब डेढ़ गुना बैठता है। यह हाल तब है जब यूपीए सरकार पर अक्सर परियोजनाओं में अनावश्यक देरी करने का आरोप लगता रहा है। पिछले दोनों केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रियों जयराम रमेश और जयंती नटराजन को ऐसे ही आरोपों के बीच पद से हटाया गया। साफ है कि इंडस्ट्री का दबाव केंद्र सरकार पर इस बात के लिए था कि परियोजनाएं अधिक से अधिक और जल्द से जल्द मंजूर की जाएं। निश्चित रूप से इंडस्ट्री की इस बेचैनी की कुछ जायज वजहें हैं। उनको दुनिया में जिन प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के सामने न केवल टिके रहना है, बल्कि खुद को उनसे बेहतर साबित करते रहना है, उनको मिलने वाली सहूलियतों के संदर्भ में ही चीजों को देखना होगा। ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं कि इंडस्ट्री इस बात की शिकायत करे कि उसे जंगल काटने की इजाजत देने में देर होती है, लिहाजा प्रधानमंत्री संबंधित विभाग के मंत्री को बदल कर यह संदेश दें कि ऐसा विलंब अनुचित है। मगर, यहां सवाल उठता है कि अगर अगले 10, 20 या 50 वर्षों में देश के सारे जंगल काट दिए जाएं तो क्या देश का सर्वश्रेष्ठ विकास हो जाएगा? देश को रोजी-रोजगार की जरूरत है, इसलिए इंडस्ट्री की चिंता को हर कोई सिर-आंखों पर लेता है। लेकिन इस क्रम में हम इस सवाल से साफ कन्नी काट लेते हैं कि इस खास तरीके के विकास की कीमत हमें किन-किन रूपों में चुकानी पड़ रही है। बार-बार विध्वंस पर उतारू मौसम का बदलता चक्र हमें दिखता है, जब-तब सूनामी की लहरें हमें बेचैनी से भर जाती हैं, जंगल को अपने सीने से लगाए रातोंरात बेघर हो जाने वाले आदिवासी समाज की मासूमियत भी हमें प्रभावित करती है, लेकिन इन सब चीजों के लिए जिम्मेदार कारकों पर विचार करने की जहमत हम नहीं उठाते। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित अपने भाषण में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी स्थिरता की जरूरत बताते हुए कहा कि देश को ऐसी सरकार चाहिए जो विकास के प्रति प्रतिबद्ध हो। इसमें दो राय नहीं कि देश में विकास दर के आंकड़े ऊंचे रहने चाहिए। लेकिन, इसके वैकल्पिक रास्तों के बारे में सोचने और उनपर अमल करने की कोशिशें हमने छोड़ ही दी हैं। शायद हर एक परियोजना पर अलग से सोचने पर उसका कोई ऐसा रास्ता निकल आए, जिससे जंगलों और उनपर निर्भर लोगों का कम से कम नुकसान होता हो। ऐसे रास्तों के लिए मशक्कत हम आज नहीं करेंगे तो कल को झख मारकर हमें यही सब करना पड़ेगा, और तब शायद रास्ता बदलने का नुकसान भी बहुत ज्यादा हो। आखिर यह सवाल भारत ही नहीं, इस पूरे ग्रह के भविष्य का है।
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राहुल गांधी

दंगों पर दोहरा रवैया
   Wed, 29 Jan 2014

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के इस कथन पर व्यापक प्रतिक्रिया होनी ही थी कि 2002 के गुजरात और 1984 के दिल्ली के दंगों में अंतर है और सबसे बड़ा अंतर यह है कि गुजरात सरकार तो दंगों को भड़काने में शामिल थी, लेकिन केंद्र सरकार ने सिख विरोधी दंगों को रोकने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं, अदालत से क्लीन चिट मिल जाने के बावजूद वह नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों का दोषी मानने पर अड़े हैं। यह और कुछ नहीं कांग्रेस उपाध्यक्ष के दोहरे मानदंड का प्रमाण है। वह कांग्रेस के लिए अलग और विरोधी दलों के अलग कसौटी सिर्फ इसलिए रख रहे हैं ताकि राजनीतिक और चुनावी लाभ उठाया जा सके। सबसे खराब बात यह है कि इस क्रम में वह अदालती निर्णय को भी महत्वहीन साबित करने पर तुले हैं। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गुजरात दंगों की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में उसके ही द्वारा गठित विशेष जांच दल ने की थी। माना कि इस जांच दल के निष्कर्ष कांग्रेस के लिए सुविधाजनक नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह वोटों के लालच में अल्पसंख्यकों के बीच मोदी का हौवा खड़ा करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करे। नि:संदेह अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न कारणों से हुए दंगों की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन इस पर गौर अवश्य किया जा सकता है कि उन्हें रोकने के लिए संबधित सरकारों ने कैसे प्रयास किए? गौर इस पर भी किया जाएगा कि दंगों के दोषियों को दंडित करने के लिए क्या प्रयास किए गए और उनमें कितनी सफलता मिली?  राहुल गांधी की मानें तो 1984 में दिल्ली में भड़के सिख विरोधी दंगों को रोकने के लिए केंद्र की तत्कालीन सरकार ने तो भरसक प्रयास किए, लेकिन 2002 में गुजरात सरकार सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। राहुल गांधी इस नतीजे पर चाहे जैसे पहुंचे हों, वस्तुस्थिति उनके नजरिये से मेल नहीं खाती और यही कारण है कि वह विरोधी दलों के नेताओं के निशाने पर हैं। यह साफ है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष गुजरात दंगों को एक खास नजरिये से देख रहे हैं और ऐसा करते समय सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में केंद्र की तत्कालीन सरकार को पाक-साफ भी करार देना चाहते हैं। इस रवैये को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सभी यह जानते हैं कि दोनों ही स्थानों पर दंगाइयों से निपटने के लिए किस स्तर पर कैसे प्रयास किए गए। यह ठीक नहीं कि कांग्रेस समेत कुछ राजनीतिक दल गुजरात दंगों का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करते समय यह ध्यान देने से बच रहे हैं कि इससे देश की जनता के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं जाता। यदि इस तरह के भीषण दंगों के संदर्भ में सही राजनीतिक दृष्टि नहीं अपनाई जाएगी तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि राजनीतिक दल अपनी भूलों से सबक सीखने के लिए तैयार हैं? बेहतर हो कि सभी राजनीतिक दल और विशेष रूप से कांग्रेस यह समझे कि चाहे 1984 में दिल्ली के दंगे हों अथवा गुजरात में हुए दंगे, दोनों ने ही देश को शर्मिदा करने का काम किया। अब कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि इन दंगों से प्रभावित लोगों के घावों पर मरहम कैसे लगे। यह तभी होगा जब दंगों को लेकर वोट बैंक की राजनीति करने से बाज आया जाएगा।
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राहुल की दो गलतियां   
 Thu, 30 Jan 2014

एक समाचार चैनल को दिए गए साक्षात्कार में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दो गलतियां कीं। दस साल पहले संसदीय राजनीति में पदार्पण के बाद यह उनका पहला मीडिया इंटरव्यू था। उनकी पहली गलती थी 1984 दंगों के लिए माफी न मांगना। उनकी इस बात में दम है कि उस समय वह काफी छोटे थे और राजनीति में नहीं उतरे थे। लोग नरेंद्र मोदी को भी 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के लिए तो दोषी नहीं ठहरा रहे हैं। न ही किसी अन्य घटना के लिए उनसे सवाल पूछे जा रहे हैं जो तीन दशक पहले हुई हो और जिसका उनसे कोई वास्ता न हो, लेकिन राहुल गांधी जिस तरह 84 के दंगों के लिए खेद जाहिर करने से भी बचे उसे माफी मांगने से मना कर देने के समान ही समझा जाएगा। राहुल की प्रतिक्त्रिया चौंकाने वाली थी, चूंकि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनकी मां सोनिया गांधी इंदिरा गांधी के सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा उनकी हत्या के बाद भड़के दंगों में सिखों की हत्याओं पर अफसोस जता चुकी थीं। ऐसा नहीं हो सकता कि वह 1984 में अपने पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बयान को भूल गए हों। डॉ. मनमोहन सिंह ने भी इन दंगों के लिए माफी मांगी थी। इसलिए अगर राहुल भी माफी मांग लेते तो वह कांग्रेस की स्थापित लाइन का ही पालन कर रहे होते। अगर राहुल 1984 के दंगों के लिए माफी मांग लेते और कहते कि अगर जरूरत पड़ी तो वह सौ बार माफी मांगेंगे तो इससे सिख भाइयों के जख्मों पर कुछ मरहम लगता। आखिर राहुल गांधी ने यह तो कहा ही कि उनका मानना है कि दंगों और निर्दोष लोगों की हत्याएं जघन्य अपराध है। अगर वह 84 के दंगों पर माफी मांग लेते तो उस चक्त्रव्यूह को काट डालते जिसमें इंटरव्यू लेने वाला उन्हें फंसाने की कोशिश कर रहा था। इसका एक फायदा यह होता कि लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस को सिखों के करीब आने का मौका मिल जाता। आखिरकार उन्होंने स्वीकार ही किया कि कुछ कांग्रेसी इन दंगों में शामिल हो सकते हैं और उनके खिलाफ अदालत में मामले चल रहे हैं। 80 मिनट के इस साक्षात्कार में राहुल गांधी तमाम विवादित मुद्दों से कन्नी काटते रहे, जो बहुत से राजनेताओं के लिए ईष्र्या का विषय हो सकता है। किंतु 2002 और 1984 के दंगों की तुलना में उन्होंने कहा कि गुजरात सरकार ने लोगों को दंगों के लिए भड़काने और आगे धकेलने का काम किया, जबकि 1984 में केंद्र सरकार ने दंगों के नियंत्रण के प्रयास किए थे। 84 के दंगों पर माफी से यह तुलना अनावश्यक हो जाती और एक युवा राजनेता के तौर पर अपनी पार्टी की कमान संभालते वक्त उनकी साफ-सुथरी छवि बनती। या तो राहुल गांधी इस मुद्दे पर सही तरह से सोच नहीं पाए या फिर साक्षात्कार से पहले उन्हें पार्टी के अनुभवी नेताओं द्वारा सही ढंग से बताया नहीं गया था। उनके पास तमाम संसाधन और वरिष्ठ नेताओं का अनुभव था, जो उन्हें साक्षात्कार में फेंके जाने वाले कठिन सवालों के बाउंसरों से बचने का सही उपाय बताय बता सकते थे। इस इंटरव्यू के लिए उन्हें पहले से अच्छी तरह तैयारी कर लेनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दो प्रेस कांफ्रेंसों से पहले उन्हें मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले तमाम संभावित सवालों के जवाब के बारे में बता दिया गया था। इन प्रेस कांफ्रेंस के बारे में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार ने कहा था कि केवल एक ऐसा सवाल था जिसके बारे में वे अनुमान नहीं लगा पाए थे और उसकी तैयारी नहीं की गई थी। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के स्टेज पर आने से पांच मिनट पहले तक उन्हें नवीनतम घटनाक्त्रम से अवगत कराया जाता है, ताकि वह कोई गड़बड़ी न कर दें। एक स्तर पर राहुल गांधी की इस बातचीत से पता चलता है कि वह किस कदर खोल में सिमटे हुए हैं। वह संभवत: मुट्ठी भर लोगों के संपर्क में ही रहते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि प्रणब मुखर्जी की तरह वह खुद ही अखबार पढ़ते हैं या फिर कोई उन्हें उनकी दिलचस्पी की खबरों का सार बता देता है। लगता है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ उनका अधिक मेलजोल नहीं है, जिनके साथ वह महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करते हों और जो उन्हें मुश्किल हालात से उबरने में सलाह देते हों। उनकी दूसरी गलती यह रही कि इंटरव्यू में आने से पहले वह अगले दिन की हेडलाइन के बारे में सोच कर नहीं आए। जब राजनेता मीडिया से मिलते हैं तो उनके मन में स्पष्ट तौर पर होता है कि वे किस मुद्दे पर क्या कहेंगे ताकि वह बयान अगले दिन के अखबारों की सुर्खियां बन सके। राहुल गांधी ने अधिकांश सवालों के जवाब में व्यवस्था बदलने और युवाओं व महिलाओं के सशक्तीकरण की बात कहीं। जब उन्होंने कहा कि वह गंभीर राजनेता हैं और उनकी संजीदगी और नीयत में कोई कमी नहीं है तो ये बातें हेडलाइन नहीं बन सकतीं। इनसे उन्हें सवालों के जवाब देने से बचने का मौका जरूर मिला। हो सकता है यह सवालों में फंसने से बचने की रणनीति हो। राहुल गांधी बहुत सी जिज्ञासाएं शांत नहीं कर पाए। बहुत से राजनेताओं का मानना है कि इसके लिए कौशल जरूरी है, किंतु किसी साक्षात्कार में छाप छोड़ने के लिए ऐसे विचारों से लैस होना आवश्यक है जिनमें अगले दिन की हेडलाइन बनने की कूवत हो। इससे वह जंग को अपनी शतरें पर लड़ने की स्थिति में आ जाते। एक राजनेता सामान्य दिनों में अगर अपने लिए असहज सवालों के उभरने पर किसी तरह बचकर निकल जाए तो इसे उसकी खूबी माना जाता है, लेकिन जब एक पूर्व निर्धारित कार्यक्त्रम के तहत कोई साक्षात्कार होता है तब यह अपेक्षा की जाती है कि हर तरह के सवाल उठेंगे और उनके जवाब देने ही होंगे। इस लिहाज से राहुल गांधी पूरे साक्षात्कार के दौरान अनेक अवसरों पर संतुष्ट नहीं कर सके। कहीं-कहीं वह मुद्दों को टालते हुए दिखाई दिए तो कहीं अटपटे जवाब भी दिए। भ्रष्टाचार, आदर्श घोटाला, शीला दीक्षित से जुड़े मामले पर पूछे गए सवालों के उन्होंने न केवल गोल-मोल जवाब दिए बल्कि हमें सिस्टम को बदलना, बुनियादी मुद्दा यह है.., युवाओं को आगे लाना है, महिलाओं को मजबूती देनी है जैसी बातें कहकर सटीक जवाब देने से कतरा गए। कुछ गंभीर मसलों पर राहुल गांधी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिए तो विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा और नक्सलवाद जैसे अहम मसलों पर उनसे सवाल ही नहीं पूछे गए। ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब देश की जनता राहुल गांधी से चाहती है। इसी तरह उन्होंने यह दावा भी किया कि वह ऐसा बदलाव करने जा रहे हैं जिसके बारे में सोचा भी नहीं गया है, लेकिन हैरत की बात है कि वह इसकी झलक तक भी नहीं दिखा सके। उन्हें इसका अहसास होना चाहिए कि केवल व्यवस्था में बदलाव लाने की बातों से काम चलने वाला नहीं है।