Friday 24 October 2014

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह




खामोशी नहीं, जवाब चाहिए

Wed, 24 Sep 2014

'मैंने अपना कर्तव्य निभाया'। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन आरापों के बचाव में यह सफाई दी जिनमें कहा गया है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटालों और कोयला खदानों की बिक्री में भ्रष्टाचार की उन्हें जानकारी थी और उन्होंने कुछ नहीं किया। यह कहने की जरूरत नहीं है कि वह पाक-साफ हैं, लेकिन यह उन्हें इस आरोप से बरी नहीं कर देता कि अपनी नाक के नीचे चल रहे भ्रष्टाचार में उन्होंने साथ दिया। तत्कालीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय की रिपोर्ट इतनी नुकसानदेह है कि पूर्व प्रधानमंत्री को अपनी विश्वसनीयता बचाने के लिए अपना पक्ष रखना पड़ेगा-अगर ऐसा कोई पक्ष है। यह दलील काफी नहीं है कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पैसे नहीं बनाए या वह इससे कहीं भी सीधे-सीधे नहीं जुड़े हैं। उन्हें अपना बचाव करना पड़ेगा कि वह लंबे समय तक चले भ्रष्टाचार का साथ देते दिखाई देते हैं। जब कोई भी इस भ्रष्ट सौदे को साफ देख सकता था, उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। वह कैसे कह सकते हैं कि वह अपना कर्तव्य निभा रहे थे। कम से कम उस समय उन्हें कार्रवाई करनी चाहिए थी जब सीबीआइ ने सब पता लगा लिया था कि घोटाला शुरू कैसे हुआ और कहां तक हुआ और इसकी रिपोर्ट उनके कार्यालय को दे दी थी।
उनकी यह दलील कि उन्होंने अपनी ड्यूटी की, एक ऐसा बयान है जो कहीं नहीं ले जाता। घोटाले के जिम्मेदार लोग इसे लंबे समय तक बेरोकटोक करते रहे। प्रधानमंत्री कार्यालय को जब एक बार शुरुआती रिपोर्ट मिल गई तो उसे तुरंत सक्त्रिय हो जाना चाहिए था। उसकी निष्कि्त्रयता से कई सवाल उठ खड़े होते हैं जिनका जवाब चाहिए और सिर्फ खामोशी कोई उत्तर नहीं है और न ही इससे आरोपों की गंभीरता कम होगी। यह साफ है कि जो कुछ हो रहा था उसकी जानकारी उन्हें थी और राजनीतिक वजहों से उन्होंने चुप रहना पसंद किया। अगर दो टूक शब्दों में कहा जाए तो वह किसी भी तरह कुर्सी पर बने रहना चाहते थे। यह लगभग साबित हो गया कि उन्हें सामने रखकर वे तत्व पैसा बना रहे थे जो 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी के आवास के नाम से पहचाने जाते थे। यह उन्हें इससे बरी नहीं करता कि भ्रष्ट सौदे किए जा रहे थे और वह अपना मुंह फेरकर दूसरी ओर देख रहे थे। कोई भी उन्हें घोटाले का हिस्सा होने का दोषी नहीं मानता, लेकिन कोई दावे से यह भी नहीं कह सकता कि सभी चीजों पर उनकी नजर इस तरह थी जैसे वह कुछ कर नहीं सकते थे। वह कई बार कह चुके हैं कि अभी उनके विरोध में जो कहा जा रहा है उसके मुकाबले आने वाली पीढ़ी बेहतर ढंग से उनका मूल्यांकन करेगी। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि तीस-चालीस साल बाद लोगों की क्या समझ होती है। तब भी लोग उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री ही बताएंगे।
यह दुख की बात है कि राजनीतिक लड़ाई के कारण कोई लोकपाल नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि घोटाले की तह में पहुंचने और यह ढूंढ़ निकालने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि अगर पूर्व पधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं थे तो वह कौन था जो इस खुलकर चले रहे भ्रष्टाचार को होते हुए देख रहा था। यह संभव है कि जो भ्रष्टाचार चल रहा था उसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय जिम्मेदार नहीं हो, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि उसे इसकी जानकारी नहीं थी कि क्या हो रहा है। भ्रष्ट सौदे किए गए, यह साबित तथ्य हो चुका है। मामले की आगे जांच नहीं करना और दोषी का पता नहीं लगाना राष्ट्र के लिए अनुचित है। यह ढ़ूंढ़ना कठिन नहीं है कि किस पर दोष लगाया जाए, क्योंकि किसी ने तो इस सौदे की स्वीकृति दी होगी और किसी की नजर इस पर होगी कि इसका पालन हो रहा है। यह खतरा उठाकर भी कि क्लीन चिट देने के लिए उस पर राजनीतिक दबाब भी लाया जा सकता है, सीबीआइ को यह काम सौंपा जा सकता है। यह अफसोस की बात है कि किसी ऊंचे पद पर बैठे अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि राजनेता सौदा करने में खुद शामिल रहते हैं। सिर्फ इस कारण कि देश में एक कमजोर प्रधानमंत्री था, सरकार कार्रवाई नहीं करने का फैसला करती है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि घोटाला नहीं हुआ और राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों ने पैसा नहीं बनाया। अब सरकार बदल गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार यह कह रहे हैं कि वे सिस्टम को साफ करेंगे। इस लिहाज से अभी तक कुछ कार्रवाई शुरू हो जानी चाहिए थी। ठीक बात है कि सरकारी नौकरों को समय पर आना चाहिए, लेकिन यह कोई ऐसा बदलाव नहीं है जिससे लोग संतुष्ट हो जाएं जिन्हें उम्मीद है कि उन राजनेताओं और नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई हो जो घोटाले में शामिल हैं। कोई प्रत्यक्ष सुबूत नहीं है, लेकिन लोगों को लगता है कि 10 जनपथ पिक्चर में है। पर्दे के पीछे क्या चल रहा था, इसकी कहानी बताने के लिए जो किताबें आई हैं उससे इतना कुछ पता चल गया है कि नामी लोगों की एक उच्चपदस्थ टीम इस सारे मामले की जांच करने के लिए नियुक्त की जा सके और लोगों के सामने यह लाया जा सके कि राजनीतिज्ञ और नौकरशाहों ने मिलकर पूरी तरह देश को लूटा है।
कहा जाता है कि बिना किसी जिम्मेदारी के सोनिया गांधी ने प्रशासन चलाया। गोपनीय फाइल उनके पास जाती थी। हालांकि आरोप सार्वजनिक हो गए, लेकिन कोई ठोस दलील उनके या मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल रहे लोगों की तरफ से नहीं आई है। ऑडिटर जनरल ने जो इंटरव्यू दिया है वह उनकी रिपोर्ट से ज्यादा हानिकारक है। उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया है कि वे प्रधानमंत्री से मिले थे और काफी कुछ बातें उन्हें मौखिक रूप से बताई थीं। इसके अलावा कि वह प्रधानमंत्री पद पर बने रहना चाहते थे, यह कहना मुश्किल है कि मनमोहन सिंह ने कार्रवाई क्यों नहीं की? सोनिया गांधी ने उन्हें पद पर बनाए रखने के लिए सब कुछ किया, लेकिन वह बुरी तरह विफल रहे, जैसे कि कुर्सी लोगों की इस उम्मीद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो कि वह भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ करेंगे। यह अफसोस की बात है कि मनमोहन सिंह जैसे आदमी ने कुर्सी पर बने रहने के लिए समझौते किए। आने वाली पीढ़ी यही मूल्यांकन करेगी कि उन्हें कुर्सी नहीं छोड़नी पड़े, इसके लिए वह पद की जरूरत के हिसाब से समय पर खड़े नहीं हुए।
[लेखक कुलदीप नैयर, प्रख्यात स्तंभकार हैं]
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Friday 26 September 2014

मनमोहन सिंह




निष्क्रियता की कहानी

Sat, 13 Sep 2014

पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय ने देश को अवाक कर देने वाले घोटालों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जिस तरह कठघरे में खड़ा किया वह कोई नई बात नहीं,लेकिन इस बार उन्होंने उन पर कहीं अधिक गंभीर आरोप लगाए हैं। इससे तो सारा देश अवगत है कि बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न तो 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले को रोक सके और न ही कोयला खदानों के आवंटन में बंदरबांट को, लेकिन पूर्व कैग प्रमुख की मानें तो वह आगाह करने के बाद भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। यह एक गंभीर आरोप है और इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मनमोहन सरकार में मंत्री रहे कमलनाथ भी विनोद राय के इस आरोप की पुष्टि कर रहे हैं कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर प्रधानमंत्री ने उनकी शिकायती चिट्ठी की अनदेखी कर दी। कमलनाथ की इस स्वीकारोक्ति के बाद मनमोहन सिंह को अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए आगे आना चाहिए। यह सही है कि इन दोनों ही घोटालों की सीबीआइ जांच हो रही है और उस पर सुप्रीम कोर्ट की भी निगाह है, लेकिन जब हर कोई पूर्व प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है तब फिर उन्हें अपना पक्ष रखना ही चाहिए। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विगत में वह यह कह चुके हैं कि गठबंधन सरकार की मजबूरियों के चलते उनके हाथ बंधे हुए थे, क्योंकि ऐसी सरकार के मुखिया को इसकी इजाजत नहीं मिलती कि वह अपनी आंखों के सामने घपले-घोटाले होते देखते रहें। 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के मामले में ठीक ऐसा ही हुआ। मनमोहन सिंह इससे अच्छी तरह अंवगत थे कि 2जी स्पेक्ट्रम का मनमाने तरीके से आवंटन किया गया, लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से वह मौन बने रहे। कोयला खदानों के मनमाने आवंटन में तो वह खुद भी भागीदार बने, क्योंकि उस समय कोयला मंत्रालय का प्रभार भी उनके पास था। पूर्व कैग प्रमुख ने मनमोहन सरकार पर एक और गंभीर आरोप यह भी लगाया है कि उनका फोन टैप किया जा रहा था। अगर यह आरोप सही है तो इससे अधिक शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता कि केंद्रीय सत्ता एक संवैधानिक संस्था के प्रमुख की जासूसी करे।
किसी को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वाकई कैग प्रमुख की ताक-झांक की जा रही थी? इसी के साथ खुद विनोद राय को भी यह बताना चाहिए कि जब महा घोटाले हो रहे थे और प्रधानमंत्री कथित तौर पर निष्क्रिय बने हुए थे तो उन्होंने आगे बढ़कर यह शोर क्यों नहीं मचाया कि देश के साथ अनर्थ हो रहा है? यह ठीक नहीं कि प्राकृतिक संसाधनों की ऐसी लूट और अन्य अनेक घोटालों पर आगे बढ़कर देश को चेताने के बजाय कैग प्रमुख अपने दायरे में रहकर लिखा-पढ़ी करने तक सीमित रहे। आखिर इससे देश को जो नुकसान हुआ उससे तो नहीं ही बचा जा सका। यह ठीक नहीं कि नौकरशाह सेवानिवृत होने के बाद कहीं अधिक सक्रियता दिखाएं। क्या कारण है कि वह अपेक्षित सक्रियता उस समय नहीं दिखा पाते जिस समय उसकी ज्यादा जरूरत होती है? यह सवाल जितना पूर्व कैग प्रमुख पर लागू होता है उतना ही उन अन्य अनेक लोगों पर भी जो किताबों के जरिये मनमोहन सिंह के शासन काल की खामियों को उजागर करने में लगे हुए हैं।
(मुख्य संपादकीय)
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Sunday 7 September 2014

घोटाला




घोटाले वाली गलती   
 Sat, 11 Jan 2014

  आखिरकार केंद्र सरकार कोयला खदानों के आवंटन के मामले में यह मानने के लिए विवश हुई कि उससे किसी न किसी स्तर पर गलती हुई, लेकिन किसी मामले में केवल सच को स्वीकार करना पर्याप्त नहीं। सच्चाई स्वीकार करने से समस्या का समाधान नहीं होता। कोयला खदानों के आवंटन में गलती के लिए जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, क्योंकि कोयला खदानों का आवंटन कुछ ज्यादा ही मनमाने तरीके से किया गया और इसी के चलते इस प्रक्रिया ने एक घोटाले का रूप ले लिया। किसी नीति पर सही ढंग से अमल न हो पाना समझ में आता है, लेकिन आखिर वे कौन से कारण रहे जिनके चलते सर्वथा अपात्र लोगों को कोयला खदानों का आवंटन कर दिया गया? इस मामले में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और सीबीआइ से जांच कराने की जरूरत पड़ी उससे तो ऐसा लगता है कि कोयला खदानों के आवंटन में भी वैसी ही मनमानी की गई जैसी 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में की गई थी। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन भी पहले आओ और पहले पाओ नीति के तहत किए गए, लेकिन इस दौरान बड़ी सफाई से चहेतों को उपकृत कर दिया गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे महज गलती की संज्ञा दी जा रही है वह जानबूझकर किया गया अनुचित काम हो? इस सवाल का जवाब सीबीआइ की जांच के जरिये ही सामने आ सकता है और देखना यह है कि वह इस पूरे मामले में सच्चाई की तह तक पहुंचने में सफल हो सकती है या नहीं? जो भी हो, केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को यह अहसास होना ही चाहिए कि कोयला खदानों के आवंटन में उससे जो कथित गलती हुई उसकी देश को गंभीर कीमत चुकानी पड़ी है।  कोयला खदानों का आवंटन एक घोटाले में तब्दील हो जाने के कारण न केवल खदान आवंटन की उसकी नीति का उद्देश्य छिन्न-भिन्न हो गया, बल्कि कोयले का खनन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ और इसके चलते बिजली की किल्लत तो पैदा हुई ही, उद्योग-धंधों को भी नुकसान उठाना पड़ा। हालात ऐसे बने कि कोयले के बड़े भंडार के बावजूद देश को उसका आयात करने के लिए विवश होना पड़ा। अब पता चल रहा है कि इसके आयात में भी घोटाला हो गया। क्या केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंता यह समझेंगे कि किसी बड़ी नीति पर गलत तरीके से अमल के कैसे दुष्परिणाम सामने आते हैं? फिलहाल यह कहना कठिन है कि देश को कोयले की किल्लत से निजात मिल सकेगी या नहीं, क्योंकि केंद्र सरकार को यह तय करना शेष है कि जिन कंपनियों को गलत तरीके से कोयला खनन के लाइसेंस मिले उन्हें रद किया जाए या नहीं? इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की यह आपत्तिसही है कि सरकार को निर्णय लेने में इतनी देरी क्यों हो रही है? केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी गलती के कारण जो समस्याएं उत्पन्न हुईं उनका समाधान शीघ्र निकले। इतना ही नहीं, उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कोयले के पर्याप्त खनन की व्यवस्था कैसे बने। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकार जरूरत भर के कोयले का खनन करने में सक्षम नहीं रह गई है और इसके चलते गंभीर समस्याएं खड़ी हो गई हैं। 

एक और घोटाला  
  Sun, 05 Jan 2014

जानबूझकर घटिया कोयला आयात करने के आरोप में दो कोयला कंपनियों के खिलाफ सीबीआइ की कार्रवाई एक और घोटाले को बयान कर रही है। सीबीआइ की मानें तो खराब किस्म के कोयले का आयात किए जाने से देश को 116 करोड़ का नुकसान पहुंचा। फिलहाल यह कहना कठिन है कि सीबीआइ इस घोटाले की परतें कब तक खोल सकेगी और दोषी लोगों को कोई सजा दिलाने में कामयाब रहेगी या नहीं, लेकिन इस पर गौर किया ही जाना चाहिए कि कोयले के मामले में समृद्ध माने जाने वाले देश को उसका आयात क्यों करना पड़ा? इस आयात का मूल कारण सरकार की नाकाम नीतियां ही हैं। सरकारी कंपनी कोल इंडिया एक लंबे अर्से से जरूरत भर के कोयले का खनन करने में नाकाम है। हमारे नीति-नियंताओं ने कोल इंडिया की इस नाकामी पर समय से चेतने से इन्कार किया। इसका दुष्प्रभाव कोयला आधारित बिजली कंपनियों के साथ-साथ अन्य उद्योगों पर भी पड़ा। यह किसी से छिपा नहीं कि देश के उद्योग धंधे किस तरह बिजली की किल्लत से जूझ रहे हैं। इस किल्लत के लिए एक हद तक सरकार की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। कोल इंडिया की सीमित क्षमता को देखते हुए निजी कंपनियों को कोयला खनन की इजाजत देने की नीति सैद्धांतिक रूप से उचित ही थी, लेकिन इस नीति का पालन कुछ इस तरह से किया गया कि एक बड़े घोटाले ने आकार ले लिया और उसका असर केंद्र सरकार की छवि पर तो पड़ा ही, उद्योग-धंधों पर भी पड़ा, क्योंकि बिजली की किल्लत जस की तस बनी रही।  कोयला घोटाला एक सही नीति पर गलत तरीके से अमल का उदाहरण ही है। इस नीति पर मनमाने तरीके से अमल नहीं किया गया होता और अपात्र कंपनियों को कोयला खदानों का आवंटन नहीं हुआ होता तो आज स्थिति कुछ दूसरी ही होती। चूंकि खुद सरकार ही अपनी इस नीति पर सही तरह से अमल नहीं कर सकी इसलिए वह अपना बचाव करने की भी स्थिति में नहीं रह गई है। उसकी ओर से चाहे जैसी दलीलें क्यों न दी जाएं, लेकिन सच्चाई यह है कि कोयले के मामले में जैसी स्थितियां उभर आई हैं उनकी जिम्मेदारी से वह बच नहीं सकती। अब हालत यह है कि कोयला घोटाले की जांच के कारण निजी कंपनियां जहां की तहां खड़ी हैं और यह जगजाहिर ही है कि कोल इंडिया अभी भी इस स्थिति में नहीं आ सकी है कि वह पर्याप्त कोयले का खनन कर सके। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि कोयले के बड़े भंडार वाला कोई देश उसे आयात करने के लिए विवश हो और इस आयात में भी घोटाले देखने को मिलें? यह सब इसीलिए हुआ, क्योंकि जिन लोगों पर सही समय पर सही फैसले लेने की जिम्मेदारी थी उन्होंने अपना काम सही तरह नहीं किया। आश्चर्य नहीं कि कोयले के आयात में घोटाला सामने आने के बाद उसके आयात की प्रक्रिया शिथिल पड़ जाए। यदि ऐसा होता है, जिसके कि आसार भी नजर आ रहे हैं तो इसके दुष्परिणाम बिजली कंपनियों को भी भोगने होंगे और अन्य उद्योगों को भी। इसमें संदेह है कि मौजूदा माहौल में केंद्र सरकार ऐसा कुछ कर सकेगी जिससे देश कोयले की किल्लत से मुक्त हो सके। 

आदर्श तरीका   
Wed, 08 Jan 2014

इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आदर्श सोसाइटी घोटाले में फंसे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के खिलाफ सीबीआइ इसके बावजूद चार्जशीट दाखिल कर सकती है कि राज्यपाल ने उसे इसकी अनुमति देने से इन्कार कर दिया है। सवाल यह है कि यह इन्कार क्यों किया गया और किसके इशारे पर? राज्यपाल इस तरह के मामलों में स्वत: निर्णय लेने में सक्षम नहीं। यह स्वाभाविक ही है कि राज्यपाल महोदय ने या तो महाराष्ट्र सरकार के दबाव में अशोक चव्हाण के खिलाफ सीबीआइ को कार्रवाई करने की अनुमति देने से इन्कार किया या फिर केंद्र सरकार अथवा कांग्रेस नेतृत्व के इशारे पर? कांग्रेस को इस पहेली को सुलझाना ही होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी ही सरकार है और वही केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व भी कर रही है। कांग्रेस को यह पहेली इसलिए और भी सुलझानी होगी, क्योंकि वह इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की मुद्रा में है और अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी के उस बयान के साथ भी खड़ी दिखने की कोशिश कर रही है जिसमें उन्होंने आदर्श सोसाइटी घोटाले की जांच रपट खारिज करने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले पर आपत्तिजताई थी। अगर कांग्रेस इस मामले में राहुल की आपत्तिके साथ है तो उसे यह बताना ही होगा कि आखिर महाराष्ट्र सरकार ने इस जांच रपट पर पुनर्विचार करने के बहाने केवल नौकरशाहों के खिलाफ ही कार्रवाई करने की बात क्यों कही? कहीं इसलिए तो नहीं कि जांच रपट में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का भी नाम आया है?  आखिर जो घोटाला नेताओं और नौकरशाही की मिलीभगत से हुआ हो उसमें नेताओं को बख्श देने का क्या मतलब? आखिर ऐसा भी नहीं है कि नौकरशाहों ने नेताओं को अंधेरे में रखकर मनमानी की हो। ऐसा संभव ही नहीं-इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इस घोटाले की जांच करने वाली समिति ने नेताओं और नौकरशाहों दोनों को जिम्मेदार पाया है। बेहतर हो कि कांग्रेस यह समझे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उस तरह से लड़ाई बिलकुल भी नहीं लड़ी जा सकती जिस तरह से महाराष्ट्र सरकार लड़ती हुई दिख रही है। सच तो यह है कि फिलहाल वह ऐसा करने का दिखावा मात्र कर रही है और वह भी इसलिए ताकि राहुल गांधी को अहमियत मिल सके। अच्छा हो कि राहुल गांधी खुद ही यह स्पष्ट करें कि क्या वह आदर्श घोटाले में उसी तरह की कार्रवाई होते हुए देखना चाहते थे जैसी कि हो रही है? महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की तरह से हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी मुश्किल में फंसे नजर आ रहे हैं। वह लगभग हर दिन अपनी सफाई में कुछ न कुछ कह रहे हैं, लेकिन वह उन सवालों का जवाब दे पाने में नाकाम हैं जो उनके समक्ष उठ खड़े हुए हैं। यह कोई बात नहीं हुई कि जब वह कांग्रेस नेतृत्व को अपनी सफाई देने दिल्ली आए तो न सोनिया गांधी ने उनसे मुलाकात की और न ही राहुल गांधी ने। देश को यह बताया ही जाना चाहिए कि आखिर यह मुलाकात क्यों नहीं हो सकी और कांग्रेस नेतृत्व वीरभद्र सिंह के साथ है अथवा उनके खिलाफ? भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर गंभीर आरोपों से घिरे लोगों के खिलाफ कार्रवाई के बजाय लीपापोती को स्वीकार नहीं किया जा सकता। लगता है कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार से लड़ने का आदर्श तरीका अभी सीखना शेष है। 

कांग्रेस में उथल-पुथल




कांग्रेस में उथल-पुथल

नवभारत टाइम्स | Jul 1, 2014, 

कांग्रेस के एके एंटनी जैसे 10, जनपथ के विश्वासपात्र माने जाने वाले नेता ने यह कह कर विरोधियों के दिल खिला दिए कि पार्टी की छवि अल्पंसख्यकों का तुष्टीकरण करने वाले दल की बन गई थी जिसका उसे नुकसान हुआ। इस बयान के बाद बीजेपी ने संतोष जताया कि जो बात कह-कह कर वह थक चुकी थी, आखिर कांग्रेस नेताओं को उसकी सचाई का एहसास तो हुआ। बहरहाल, इसे कांग्रेस में अपने अंदर झांकने की कोशिश कह कर बात को ज्यादा बढ़ने से रोका जा सकता है। कांग्रेस ने वही किया। उसने कहा कि एंटनी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं। इसलिए अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो पार्टी उनके इस बयान के हर पहलू पर गंभीरता से विचार करेगी। मगर, इसी बीच एक और सीनियर कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ने इससे भी बड़ी बात कह दी। उन्होंने गोवा में कहा, 'राहुल गांधी शासक मिजाज के शख्स नहीं हैं। वह स्वभाव से ऐसे व्यक्ति हैं जो अन्याय का विरोध करना चाहता है।' इसके साथ ही उन्होंने एक बार फिर इस बात पर अफसोस जताया कि राहुल ने लोकसभा में पार्टी नेता की जिम्मेदारी नहीं संभाली। हालांकि बाद में विवाद उठने पर उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि उनका मतलब यह था कि राहुल सत्ता के भूखे नहीं हैं। पर, दिग्विजय सिंह ने जिस भाव से भी कहा हो, सच यह है कि अगर किसी में सत्ता की चाह नहीं है तो राजनीति में उसके होने का मतलब नहीं है। जो शख्स खुद सत्ता में नहीं आना चाहता, वह चुनाव मैदान में अपनी पार्टी का नेतृत्व कैसे कर सकता है? साफ है कि कांग्रेस के अंदर नेतृत्व का गंभीर संकट पैदा हो चुका है। क्या इसका एक हिस्सा गांधी परिवार से नाता तोड़ने की जरूरत महसूस करने लगा है? कांग्रेस के इतिहास और उसके चरित्र को देखते हुए यह बात अभी दूर की कौड़ी ही लगती है। दूसरी संभावना यही हो सकती है कि पार्टी का एक प्रभावशाली हिस्सा इसके नेतृत्व को इस कदर झकझोरना चाहता है कि वह अपने आपको पूरी तरह बदलने पर मजबूर हो जाए। देखें, इस कवायद का क्या नतीजा निकलता है। देश का राजनीतिक मुहावरा बहुत बदल चुका है। इसमें डेली पसिंजरी वाले नेता ही टिकेंगे। सीट रिजर्व कराकर चलने वालों के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं है। 
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खीझ निकालती कांग्रेस

Sunday,Aug 10,2014

मोदी सरकार के पहले बजट सत्र में विपक्ष और खासकर कांग्रेस का घोर नकारात्मक रवैया हताश-निराश करने वाला है। यह कांग्रेस के रवैये का ही नतीजा है कि कई अहम विधेयक सरकार की प्राथमिकता में होने के बावजूद लटके पड़े हैं। इनमें बीमा विधेयक का मामला सबसे अधिक विचित्र है। यह विधेयक कांग्रेस के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने तैयार किया था, लेकिन आज वही कांग्रेस उसका विरोध कर रही है और राहुल गांधी यह सफाई दे रहे हैं कि हमने कोई यू-टर्न नहीं लिया। देश ने यह भी देखा कि राहुल गांधी किस तरह सांप्रदायिकता पर बहस की मांग को लेकर सदन के भीतर मोदी सरकार पर हमलावर हो गए। इसके बाद वह इस नतीजे पर पहुंच गए कि जबसे मोदी सरकार आई है, देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बढ़ गई हैं और उत्तर प्रदेश में जानबूझकर दंगे कराए जा रहे हैं। इस सबसे तो यही स्पष्ट होता है कि वह लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार की हताशा से उबर नहीं पाए हैं और अपनी खीझ निकालने के लिए निरर्थक आक्रामकता का सहारा ले रहे हैं। कांग्रेस के साथ-साथ अनेक विपक्षी दल यह समझने से इन्कार कर रहे हैं कि उनके नकारात्मक रवैये से देश-दुनिया को गलत संदेश जा रहा है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस समेत अन्य अनेक दलों का शीर्ष नेतृत्व इस रणनीति पर अमल कर रहा है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जाएं जिससे मोदी सरकार अपने मन-मुताबिक काम ही न कर सके। पिछले दिनों जब राहुल गांधी लोकसभा में नारेबाजी करते हुए सदन कूप तक चले गए तब उन्होंने अपनी हताशा का परिचय दिया। यह वही राहुल गांधी हैं जिन्होंने पिछले दस वषरें में सदन के भीतर बमुश्किल कभी कोई प्रश्न पूछा या बहस में भाग लिया। राहुल गांधी ने मोदी सरकार के साथ-साथ जिस तरह लोकसभा अध्यक्ष पर अपनी खीझ निकाली उससे उन्होंने खुद को हंसी का पात्र ही बनाया। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष ने उन्हें प्रश्न काल के बाद अपनी बात रखने को कहा था, लेकिन वह अपने पद की गरिमा के खिलाफ नारेबाजी करने लगे। हैरानी की बात यह रही कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष उनकी हौसला अफजाई करती नजर आईं। सोनिया गांधी को इसका पूरा अधिकार है कि वह सदन में अपनी पार्टी के सदस्य का समर्थन करें और उसका मनोबल बढ़ाएं, लेकिन यह शोभनीय नहीं कि वह हंगामे और शोर-शराबे को बढ़ावा देती नजर आएं। राहुल गांधी के उत्तोजित-क्रोधित होने का यह पहला अवसर नहीं है। इसके पहले वह दागी राजनेताओं को बचाने वाले अध्यादेश के मामले में भी अपने तौर-तरीकों को लेकर सवालों के घेरे में आ चुके हैं और उत्तार प्रदेश में विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान सपा के घोषणापत्र को फाड़ने का अभिनय करते हुए भी। राहुल की इस आक्रामकता पर सवाल उभरना स्वाभाविक ही है। उनके विचित्र आचरण के कारण ही वित्तामंत्री अरुण जेटली को यह कहने का मौका मिला कि वह लोकसभा चुनाव में अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन के बाद कहीं न कहीं खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और असुरक्षा की इस भावना का एक कारण कांग्रेस के भीतर प्रियंका गांधी वाड्रा के पक्ष में उठ रही आवाजें भी हैं। जो भी हो, यह एक तथ्य है कि राहुल के तौर-तरीके लोकसभा चुनाव में नाकाम हो चुके हैं और इसी कारण कांग्रेस के भीतर उनके खिलाफ आवाज उठ रही है। यह बात और है कि हार की समीक्षा करने वाली एंटनी समिति उन पर अंगुली उठाने का साहस नहीं दिखा सकती। चुनाव नतीजे आने के बाद से राहुल को लेकर जैसी टिप्पणियां हो रही हैं उससे किसी का भी मनोबल गिर सकता है। मुश्किल यह है कि ज्यादातर कांग्रेसी नेता हकीकत से दो-चार होने के बावजूद चाटुकारिता करने में लगे हुए हैं। वे जिन राहुल के गुण गाते नहीं थकते वह खुद अपनी भूमिका को लेकर असमंजस में नजर आते हैं। उनका यह असमंजस मनमोहन सरकार में शासन से संबंधित कोई जिम्मेदारी लेने से बचने से भी नजर आया था। उनके पास लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करने का मौका था, लेकिन वह एक बार फिर पीछे हट गए। राहुल की यह दुविधा कांग्रेस पर भारी पड़ रही है। लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमटने और नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी न हासिल कर पाने वाली कांग्रेस दोनों सदनों में कुछ ज्यादा ही आक्रामकता प्रदर्शित कर रही है। हो सकता है कि इसके पीछे राहुल गांधी की कोई रणनीति हो, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि वह गंभीर मुद्दों पर सार्थक बहस करके ही राजनीति में अपनी छाप छोड़ सकेंगे। उन्हें अपने विचारों में गंभीरता प्रदर्शित करनी होगी और यथार्थ को अपनी आंखों से देखना-समझना होगा। अभी वह किसी मसले पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए दूसरे नेताओं पर निर्भर नजर आते हैं। उत्तार प्रदेश के मौजूदा हालात के संदर्भ में उनके विचार इसकी एक बानगी मात्र हैं। वह जब मोदी सरकार को इस अंदाज में चुनौती देते हैं कि देखें वह अमुक-अमुक काम कैसे कर पाती है तो इससे उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता ही प्रकट होती है। कांग्रेस यदि इससे कुपित है कि उसे लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा क्यों नहीं मिला तो इसका कोई ठोस आधार नहीं। न तो संसदीय नियम इसकी इजाजत देते हैं कि कांग्रेस को 44 सीटें मिलने के बाद भी नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिले और न ही संसदीय परंपराएं। कांग्रेस और कुछ विपक्षी दलों के शोर-शराबे अथवा हंगामे के बावजूद मोदी सरकार अपने संख्या बल के आधार पर लोकसभा में तमाम विधेयक आसानी से पारित करा लेगी, लेकिन राज्यसभा में उसकी परीक्षा होगी। राज्यसभा में राजग के पास बहुमत नहीं है और यह स्थिति सरकार के कामकाज में असर डालेगी। राजनीति में कांग्रेस के दबदबे वाले दिनों में लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में बहुमत का कोई संकट नहीं रहता था, लेकिन भारतीय राजनीति के बदलते स्वरूप और विशेष रूप से राज्यों में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व के बाद हालात बदलने लगे। मौजूदा स्थिति विधेयकों को पारित करने की मौजूदा प्रणाली पर नए सिरे से ध्यान देने की मांग करती है। राज्यसभा में कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दलों का जो रुख है उससे यही स्पष्ट होता है कि उनकी ओर से देशहित की अनदेखी करके केवल विरोध के लिए विरोध किया जा रहा है। अगर मोदी सरकार राजनीतिक कौशल दिखाकर राज्यसभा में जरूरी संख्या नहीं जुटा पाती तो इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना होगा। यदि आर्थिक सुधारों संबंधी बिल पारित नहीं हो सके तो जिस सार्थक बदलाव की अपेक्षा की जा रही है वह पूरी नहीं हो सकेगी। मौजूदा राजनीतिक माहौल में क्षेत्रीय दलों से यह अपेक्षा करना कठिन है कि वे जटिल मसलों पर राष्ट्रीय सोच का परिचय देंगे, लेकिन कांग्रेस को इस पर विचार अवश्य करना चाहिए कि वह किस दिशा में आगे बढ़ना चाहती है? उसे यह साबित करना होगा कि विपक्षी दल के रूप में रचनात्मक रवैये का उसने जो वायदा किया है वह दिखावटी नहीं है। अगर कांग्रेस यह सोचती है कि महत्वपूर्ण विधेयकों को लटकाकर वह मोदी सरकार की राह मुश्किल बनाने के साथ राजनीतिक लाभ हासिल कर सकेगी तो यह सही नहीं। उसे इसका अहसास होना चाहिए कि उसके नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी निष्क्रियता और निर्णयहीनता से देश का नुकसान ही किया है। इसका कोई औचित्य नहीं कि कांग्रेस चुनाव में पराजय की खीझ लोकसभा और राज्यसभा में निकालती नजर आए। कांग्रेस के रवैये से देश इसी नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि इस दल की दिलचस्पी केवल गांधी परिवार की महिमा बनाए रखने तक सीमित है और उसे देश के हितों से कोई मतलब नहीं।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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सबक लेगी तो फिर खड़ी होगी कांग्रेस

नवभारत टाइम्स | Jul 24, 2014

सी. पी. भांबरी

आजादी के बाद किसी लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ है कि कांग्रेस को कुल 545 में से सिर्फ 44 सीटों पर जीत मिल सकी है। उसका मत प्रतिशत भी महज 19.3 रहा। चुनाव में ऐसी शर्मनाक हार ने कांग्रेस के लिए संसद में 'मुख्य विपक्षी दल' और 'विपक्ष के नेता' जैसे विशेषणों को भी पराया बना दिया है। ऐसे में यह सवाल उठना अस्वाभाविक नहीं कि क्या यह भारत की सबसे पुरानी और महान पार्टी की यात्रा का अंत है, या राष्ट्रीय राजनीति में इसके पुनर्जीवन और फिर से उठ खड़े होने की संभावना अब भी बरकरार है? यहां यह बताना जरूरी है कि देश की चुनावी राजनीति में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि कांग्रेस के प्रतिद्वंदियों ने इस पार्टी का मर्सिया पढ़ना शुरू कर दिया हो। 1967, 1977, 1989-91 और 1996-2004 की अवधियों में इसे इस तरह के झटके लगते रहे हैं। लेकिन इन झटकों के बाद यह पार्टी 1979, 1984, 1991 और 2004 में सत्ता में भी लौटी।
एंटनी का बयान
दरअसल कांग्रेस पार्टी को आत्ममंथन की आवश्यकता है। इसके कुछ वरिष्ठ नेताओं के बयानों से आभास होता है कि पार्टी के अंदर आत्ममंथन की यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, हालांकि यह राय ज्यादा देर टिक नहीं पाती। एके एंटनी ने 27 जून 2014 को कहा, 'समाज के कुछ तबकों का मानना है कि पार्टी का कुछ खास समुदायों और संगठनों के प्रति विशेष झुकाव है। कांग्रेस की नीति सभी के लिए समान न्याय की रही है, लेकिन इन लोगों को संदेह है कि यह नीति लागू हो भी रही है या नहीं।' उन्होंने आगे कहा कि 'अल्पसंख्यक समुदायों से पार्टी की नजदीकियों के कारण भी यह संदेह पैदा हुआ है।' एंटनी जैसे कद्दावर नेता के इस बयान के बाद आलाकमान द्वारा पार्टी के भीतर अर्थपूर्ण बहस की शुरुआत कराए जाने की उम्मीद थी। कांग्रेस की मूल विचारधारा अल्पसंख्यकों के हितों के साथ समाज के सभी वर्गों के हितों को समाहित कर चलने की रही है। धर्मनिरपेक्षता, विविधता और बहुलता की वकालत करते हुए इस दल ने जाति-धर्म के आधार पर समाज और राजनीति को बांटने वालों का विरोध किया है। उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम के दौर में कांग्रेस की अगुवाई में मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा आदि जैसे पृथकतावादी सांप्रदायिक संगठनों का विरोध इसी आधार पर किया गया था। कई चुनावी परायजों के बाद भी कांग्रेस ने हिंदुत्ववादी ताकतों से समझौता कभी नहीं किया। वह देश की साझा संस्कृति की बात करते हुए सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए संघर्षरत रही है। भारत जैसे असमानता भरे देश में विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच संतुलन साधना एक मध्यममार्गी दल के लिए काफी कठिन है, लेकिन कांग्रेस ने समय-समय पर वामपंथ के करीब जाते हुए इस काम को अंजाम देने की कोशिश की है। इसलिए कांग्रेस को पार्टी की मूल संवेदना को आहत करने वाले एंटनी के उस बयान की समीक्षा करनी चाहिए थी। कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि अगले दिन संघ परिवार के लालकृष्ण आडवाणी इस बहस में कूद पड़े। उन्होंने कहा, 'मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि कांग्रेस का धर्मनिरपेक्षतावाद छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद है। यह वास्तव में अल्पसंख्यक और मुस्लिम तुष्टीकरण है। इस अर्थ में यह हिंदू विरोधी है।' एंटनी के बयान पर कांग्रेस की चुप्पी की व्याख्या कई रूपों में की जा सकती है। इसे कांग्रेस की बुनियादी विचारधारा से विचलन के रूप में देखा जा सकता है, तो दूसरी ओर यह भी कहा जा सकता है कि पार्टी एंटनी जैसे अपने कद्दावर नेताओं के बयान को महत्त्वपूर्ण नहीं समझती है। बहरहाल, एंटनी के बयान के दूसरे ही दिन 28 जून 2014 को दिग्विजय सिंह का एक बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा, 'राहुल की प्रवृत्ति शासनोन्मुखी नहीं है। उन्होंने आज तक कोई राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं स्वीकारी है।' कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता राहुल की नेतृत्व क्षमता को लेकर सार्वजनिक बयान देते रहे हैं। सोनिया गांधी भी पार्टी के इन महत्त्वपूर्ण नेताओं के विचारों से अनभिज्ञ नहीं हैं। इस चुनाव में हार का एक बड़ा कारण यह माना जाता है कि पार्टी संगठन और नेतृत्व, दोनों स्तरों पर पिछड़ गई। कांग्रेस की संगठनात्मक ताकत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामने न के बराबर है और एक व्यक्तित्व के रूप में राहुल गांधी नरेद्र मोदी के आगे कहीं नहीं ठहरते। पार्टी का मुखिया कौन सोनिया गांधी इस हार से इतनी हताश लग रही हैं कि पार्टी को नेतृत्व और दिशा देने के लिए एक 'सामूहिक नेतृत्व ढांचे' का गठन करने की जगह वह चुप्पी साधे हुए हैं। इस वजह से स्थिति और बिगड़ती हुई लग रही है। जरूरत इस बात की है कि पार्टी के सामूहिक नेतृत्व के मुद्दे पर वह स्वयं आगे बढ़कर कमान संभालें। यह संदेश जाना जरूरी है कि पार्टी की मुखिया सोनिया ही हैं, राहुल नहीं। लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी है, सामूहिक नेतृत्व की ओर ठोस कदम बढ़ाना। पार्टी की मूल विचारधारा की रक्षा के लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं को बराबर की भागीदारी देते हुए पार्टी के पुनर्निर्माण का कार्य सौंपना चाहिए। कांग्रेस के पास फिर से खड़े होने का यही एक रास्ता है। 

मुश्किल सवालों के जवाब तलाशती कांग्रेस

संवाद रणविजय सिंह

तरह उलझ गई है। कमजोर होते राजनीतिक आधार के चलते संसद के भीतर और बाहर कोई क्षत्रप आसानी से ‘हाथ’ से हाथ मिलाने को तैयार नहीं है, जो साथ हैं भी वे राजनीतिक फैसलों में अपना नफा-नुकसान देख रहे हैं। चुनाव वाले राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू कश्मीर में शुरू अंदरूनी विरोध कोढ़ में खाज बन गया है, तो असम में मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के प्रति अपनों की नाखुशी ने केंद्रीय नेतृत्व को बेचैन कर दिया है। बगावती तेवर अपनाए इन राज्यों के नेता नए ठौर तलाशने में लग गए हैं। इन विषम परिस्थितियों के बीच क्या कांग्रेस इन राज्यों के नाराज नेताओं को अपने साथ रखने में सफल होगी अथवा उनके प्रति पार्टी सख्त रुख अपनाएगी? क्या उत्तराखंड उपचुनावों में मिली सफलता कांग्रेस की इन परेशानियों को कमतर करने में मददगार होगी? सहयोगियों के तेवर कुछ नरम होंगे? क्या अगस्त में होने वाला ‘चिंतन शिविर’ पार्टी को कोई नई दिशा देने में सफल होगा? क्या कांग्रेस राहुल की राह चलेगी अथवा पुराने अनुभवी कांग्रेसियों को पुन: तरजीह मिलेगी? इन सवालों के भंवर में कांग्रेस बुरी तरह फंसी हुई है जिनके उसे जवाब तलाशने हैं। कमजोर राजनीतिक धरातल पर खड़ी कांग्रेस फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। वह नाराज नेताओं के सवाल पर ‘देखो और इंतजार करो’ की नीति पर अमल कर रही है। नेतृत्व बागी नेताओं से बातचीत भी कर रहा है। राहुल से लेकर सोनिया तक उनके मनुहार में लगे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि इस समय नाराज नेता पार्टी से अलग हुए तो उसका सीधा असर आसन्न विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। फलत: पार्टी की फजीहत होने से कोई रोक नहीं सकेगा। इसीलिए पार्टी हाईकमान इनके खिलाफ कार्रवाई करने की जगह बीच का रास्ता तलाश रहा है, क्योंकि आंध्र प्रदेश में की गई चूक का राजनीतिक परिणाम उसके सामने है। वर्ष 2009 के लोस मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद केंद्रीय नेतृत्व उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की ताकत का आकलन करने में चूक गया था। जगन ने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाई। उसी के बाद से कांग्रेस का यह मजबूत किला ढह गया। इसी तरह अभी चुनाव वाले राज्यों के जो नेता प्रदेश नेतृत्व से दो-दो हाथ करने को आमादा हैं उनका अपने राज्य में ठोस आधार है। ऐसे में नेतृत्व कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं है। वैसे महाराष्ट्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नारायण राणो मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की विदाई चाहते हैं, तो हरियाणा में वरिष्ठ नेता बीरेंद्र सिंह मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में चुनाव में जाने को राजी नहीं है। अंदरखाने अन्य बड़े कांग्रेसी नेता भी हुड्डा से खफा है। हरियाणा में पार्टी लोस चुनाव के पहले से ही कलह से जूझ रही है। इसी तरह जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता लाल सिंह ने पार्टी छोड़ दी है। वह भी हाईकमान से खफा हैं। असम में गोगोई के खिलाफ हेमंत विश्व शर्मा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में विधायक लामबंद हैं। वैसे पार्टी चुनाव नजदीक होने के कारण महाराष्ट्र और हरियाणा में अपने मौजूदा मुख्यमंत्रियों के सहारे चुनाव में जाने को तैयार है, तो असम पर वह सोच-समझकर फैसला लेना चाहती है। इसीलिए नारायण राणो से शीर्ष नेतृत्व की मुलाकात हुई है। हरियाणा में भी चौधरी बीरेंद्र सिंह सहित अन्य कांग्रेसी नेताओं की नाराजगी दूर करने के प्रयास हो रहे हैं। हालांकि इसमें कितनी सफलता मिलती है, यह आने वाला समय बताएगा। कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र का विवाद सुलझाना काफी अहम् है क्योंकि नारायण राणो के बगावती तेवर से कांग्रेस की सहयोगी एनसीपी की बांछें खिल गई हैं। अब एनसीपी वर्ष 2009 के फॉमरूले के आधार पर विस चुनाव में अधिक सीटों की मांग कर रही है। गौरतलब है कि 2009 में लोस की अधिक सीटें जीतने के कारण कांग्रेस ने उसे विस चुनाव में कम सीटें दी थीं। अब एनसीपी 2014 के लोस चुनाव में कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन के आधार पर अधिक सीटों की मांग कर रही है। वह धमकी दे रही है कि यदि यथोचित सीटें नहीं मिली तो वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इससे कांग्रेस के हाथ-पांव और फूल गए हैं। पिछले दिनों ट्राई संशोधन बिल के मसले पर कांग्रेस को झटका देते हुए एनसीपी सरकार के पक्ष में खड़ी हो गई थी। इसे मोदी और शरद पवार के बेहतर रिश्ते के अलावा कांग्रेस पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा माना गया। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि जिन साठ सांसदों के सहारे कांग्रेस नेता विपक्ष की कुर्सी चाहती है वे भी उसके साथ नहीं हैं। अब इस मांग पर विधिक राय भी उसके खिलाफ आ चुकी है, इसलिए उसे नेता विपक्ष पद मिलता नहीं दिख रहा। संसद में अन्य क्षेत्रीय दल भी उसके साथ खड़ा होने से बच रहे हैं। कांग्रेस की खस्ताहाल स्थिति के चलते ही नेशनल कांफ्रेस ने भी उससे अपना गठबंधन तोड़ लिया है। इन झंझावातों के बीच कांग्रेस के लिए उत्तराखंड से अच्छी खबर आई है। उसने तीनों विस उपचुनाव जीत लिए हैं। लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि इस जीत से क्या राहुल की नेतृत्व शैली को लेकर उठ रहे सवालों को दबाने में मदद मिलेगी? क्या ये परिणाम विस चुनाव वाले राज्यों के कार्यकर्ताओं में उत्साह भर पाएंगे? हालांकि इतना जरूर है कि इस जीत ने कांग्रेसियों के चेहरों पर मुस्कान जरूर लौटा दी है। पार्टी के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि इससे राहुल के नेतृत्व को लेकर उठ रही आवाजों की धार कुंद होगी। कांग्रेस बदली राजनीतिक स्थितियों के बीच अपने खराब प्रदर्शन का सच तलाशने की कोशिश में है ताकि उसे अपनी दिशा तय करने में आसानी हो सके। इसलिए अगस्त में होने वाले चिंतन शिविर को अहम माना जा रहा है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पार्टी का सव्रेसर्वा बनने की राह पर अग्रसर राहुल गांधी के प्रति करारी हार के बाद कांग्रेसियों का विास डिग गया है। पार्टी में उनके द्वारा शुरू किए गए प्रयोगों को पसंद नहीं किया जा रहा है। कई कांग्रेस नेता व अधिकांश कार्यकर्ता एंटनी कमेटी की रिपोर्ट का खुलासा चाहते हैं। उनकी मांग है कि राज्यों में टिकट बेचने वाले नेताओं का नाम उजागर होना चाहिए, साथ ही कमजोर चुनाव प्रबंधन और प्रचार की खामियों के लिए नेताओं की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। इतना ही नहीं, आम कांग्रेसी सवाल कर रहा है कि पराजय के खलनायकों को तरजीह क्यों दी जा रही है, उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर क्यों बिठाया जा रहा है। अब देखना यह है कि नई कांग्रेसी टीम में महासचिवों और सचिवों के पदों पर युवाओं को तरजीह मिलेगी अथवा पुराने चेहरों के हाथों में कमान होगी। कांग्रेस को यह भी तय करना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में वह गठबंधन की राह पर चलेगी अथवा एकला चलो की नीति अपनाएगी। बिहार में राजद और जदयू में चुनावी तालमेल के आसार है, ऐसे पार्टी की दिशा क्या होगी? इन सभी सवालों के जवाब चिंतन शिवर में तलाशे जाने हैं, साथ ही पार्टी की दिशा और दशा तय होनी है। इसी से स्पष्ट होगा कि कांग्रेस पर राहुल का रंग और गाढ़ा होगा अथवा सोनिया गांधी अपने पुराने सिपाहसलारों के सहारे पार्टी की कमान संभालेंगी। कांग्रेस अपने खराब प्रदर्शन का सच तलाशने की कोशिश में है ताकि उसे अपनी दिशा तय करने में आसानी हो सके। इसीलिए अगस्त में होने वाले चिंतन शिविर को अहम माना जा रहा है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पार्टी का सव्रेसर्वा बनने की राह पर अग्रसर राहुल गांधी के प्रति करारी हार के बाद कांग्रेसियों का विास डिग गया है । कई कांग्रेस नेता व अधिकांश कार्यकर्ता एंटनी कमेटी की रिपोर्ट का भी खुलासा चाहते हैं। उनकी मांग है कि कमजोर चुनाव प्रबंधन और प्रचार की खामियों के लिए नेताओं की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। कांग्रेस को यह भी तय करना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में वह गठबंधन की राह पर चलेगी अथवा एकला चलो की नीति अपनाएगी। इन सभी सवालों के जवाब चिंतन शिवर में तलाशे जाने हैं। इसी से स्पष्ट होगा कि कांग्रेस पर राहुल का रंग और गाढ़ा होगा अथवा सोनिया गांधी अपने पुराने सिपाहसलारों के सहारे पार्टी की कमान संभालेंगी


बंगाल कांग्रेस में कलह

Monday,Jul 21,2014

कांग्रेस सत्ता में हो या सत्ता से बाहर, वह गुटबाजी व आंतरिक कलह से कभी उबर नहीं पाई है। केंद्र की सत्ता हाथ से जाने के बावजूद बंगाल कांग्रेस में गुटबाजी खत्म नहीं हुई है और इस कारण वह टूट की कगार पर पहुंच गई है। कांग्रेस के कई विधायक व विभिन्न जिलों के कुछ जनाधार वाले नेता तृणमूल नेतृत्व के संपर्क में हैं। नदिया जिले के कद्दावर कांग्रेस नेता शंकर सिंह के भी तृणमूल के साथ संपर्क बढ़ाने की खबर है। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद भी शंकर सिंह ने नदिया जिले में कांग्रेस का झंडा बुलंद रखा। वह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रबल आलोचक के तौर पर जाने जाते थे लेकिन राज्य में बदलते राजनीतिक घटनाक्रम में अब वह भी पाला बदलने को तैयार हैं। उत्तर कोलकाता के जिला कांग्रेस अध्यक्ष शिवाजी सिंह राय भी तृणमूल का दामन थामने के लिए तैयार हैं। मालदा जिले के दो और मुर्शिदाबाद के एक कांग्रेस विधायक पार्टी छोड़ने वालों की फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर चौधरी के लिए स्थिति को संभालना चुनौती भरा काम है। पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्रा के करीबी प्रदीप घोष कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए। जनाधार वाले नेताओं को पार्टी में बांधकर रखना अधीर के लिए चुनौती बन गई है। प्रदीप भंट्टाचार्य और सोमेन मित्रा जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को विश्वास में लेकर चलने की भी अधीर ने जरूरत नहीं समझी। कांग्रेस में टूट जारी रही तो अधीर राज्य की राजनीति में अलग-थलग पड़ सकते हैं। यह जानते हुए भी उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की दिशा में अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। देश की सबसे बड़ी व पुरानी राष्ट्रीय पार्टी बंगाल में हमेशा गुटबाजी और आंतरिक कलह से जूझती रही है। 80-90 के दशक में बंगाल की सत्ता पर जब वाममोर्चा की मजबूत पकड़ थी, तब भी प्रदेश कांग्रेस गुटों में बंटी थी। सोमेन गुट, ममता गुट, प्रियरंजन दासमुंशी गुट, सुब्रत मुखर्जी और गनी खान चौधरी गुट अपने-अपने स्तर पर सक्रिय थे। सोमेन गुट के साथ ममता के नहीं पटने के कारण ही उन्होंने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस नामक अलग पार्टी बनाई थी। 1996 में तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद पहले वह मुख्य विरोधी पार्टी बनी और उसके बाद 2011 में विधानसभा चुनाव के बाद बंगाल की सत्ता पर काबिज हो गई। राज्य की राजनीति में प्रदेश कांग्रेस हाशिए पर चली गई। वाममोर्चा के लंबे शासन व ममता की आंधी में भी अधीर चौधरी ने मुर्शिदाबाद में कांग्रेस का झंडा बुलंद रखा इसलिए लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस हाईकमान ने अधीर चौधरी को प्रदेश इकाई की कमान सौंपी लेकिन वह कोई कमाल नहीं दिखा सके। हालांकि चार सांसदों को जीता कर उन्होंने अपनी लाज बचा ली लेकिन अब पार्टी को एक सूत्र में बांधकर रखना उनके लिए चुनौती बन गई है।
[स्थानीय संपादकीय: पश्चिम बंगाल]


स्वाभाविक बिखराव

Monday,Jul 21,2014 05

कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करके यह आभास कराने की कोशिश की कि उसने एकला चलो का फैसला अपनी ओर से लिया, लेकिन जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का बयान कुछ और ही कहानी कह रहा है। उनकी मानें तो नेशनल कांफ्रेंस ने कांग्रेस से अलग होने का फैसला दस दिन पहले ही ले लिया था और उन्होंने इसकी जानकारी खुद सोनिया गांधी को दे दी थी। पता नहीं दोनों में से किसका पक्ष सही है, लेकिन यह साफ है कि दोनों ही दल यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि वे दूसरे का साथ नहीं चाहते और इतने सक्षम हैं कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ भी सकते हैं और सरकार भी बना सकते हैं। यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि दोनों दल वस्तुत: कितने पानी में हैं, लेकिन आश्चर्य नहीं कि इस अलगाव का नुकसान दोनों ही राजनीतिक दलों को उठाना पड़े। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का गठबंधन टूटने के आसार पिछले लंबे समय से नजर आ रहे थे। दोनों दलों के बीच दिन-प्रतिदिन दूरियां और अविश्वास बढ़ता ही चला जा रहा था और इसके प्रमाण लोकसभा चुनाव के दौरान तब सामने आए थे जब दोनों दलों के नेताओं ने एक-दूसरे पर सहयोग न करने का आरोप लगाया। अंतत: दोनों दल अलग हो गए तो इससे स्पष्ट है कि उमर अब्दुल्ला और राहुल गांधी की दोस्ती भी गठबंधन को बचाने में कामयाब नहीं हो सकी। गठबंधन राजनीति के ऐसे हश्र नए नहीं हैं। देश की जनता इससे अच्छी तरह अवगत है कि किस तरह चुनाव के पहले और बाद में गठबंधन बनते अथवा बिगड़ते हैं। इसका एक उदाहरण लोकसभा चुनाव के बाद बिहार का राजनीतिक घटनाक्रम है, जहां एक-दूसरेके कट्टर विरोधी दल एक साथ आ गए। माना जा रहा है कि कांग्रेस भी जदयू और राजद का साथ पकड़ेगी, लेकिन अब उसके नेता कह रहे हैं कि वे आगामी विधानसभा चुनाव अपने बलबूते लड़ना चाहते हैं। यह कुछ विचित्र सा है, क्योंकि बिहार में कांग्रेस की स्थिति गई बीती है और आश्चर्य नहीं कि जदयू और राजद कांग्रेस को साथ लेकर चुनाव लड़ने के इच्छुक न हों। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जिस तरह दुर्गति हुई और उसके बावजूद पार्टी सबक सीखती हुई नजर नहीं आ रही है उसे देखते हुए आने वाले दिन उसके लिए और अधिक मुश्किल भरे हो सकते हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बीच जिस तरह उठापटक जारी है वह किसी से छिपी नहीं। अगर महाराष्ट्र में कुछ वैसा ही हुआ जैसा जम्मू-कश्मीर में हुआ तो कांग्रेस के लिए अकेले चुनाव लड़ना मजबूरी बन जाएगी। हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा की प्रबल जीत ने गठबंधन राजनीति के युग के खात्मे के संकेत दिए हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि राज्यों के स्तर पर गठबंधन राजनीति के दिन लदने वाले हैं। हाल-फिलहाल गठबंधन की राजनीति जारी रह सकती है, लेकिन इस राजनीति के जैसे तौर- तरीके हैं उससे आम जनता आजिज आ चुकी है। बेहतर हो कि राजनीतिक दल यह समझें कि गठबंधन राजनीति अवसरवाद का पर्याय नहीं हो सकती। भले ही जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस अलग-अलग राह पर चल पड़े हों, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्थिति चुनाव के बाद भी कायम रहेगी। राजनीतिक दलों के इसी रवैये ने गठबंधन राजनीति को अवसरवाद का पर्याय बना दिया है।
[मुख्य संपादकीय]

राहुल के सारे विश्वासपात्रों की 'तबीयत' बिगड़ी

नवभारतटाइम्स.कॉम | Jul 21, 2014

नई दिल्ली
16वीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के जख्म में इन दिनों दरारें साफ दिख जा रही हैं। कभी हरियाणा से तो कभी महाराष्ट्र से। अब सबसे सुरक्षित राज्य असम में भी ये दरारें चौड़ी हो रही हैं। अमूमन खून-खराबे से बदनाम रहने वाली जम्मू-कश्मीर की वादियों में भी कांग्रेस खेमे में भगदड़ की स्थिति है। कुछ महीने में ही हरियाणा, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। तीनों राज्यों में पार्टी में भारी उठा-पटक की स्थिति है। हरियाणा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और पृथ्वीराज चव्हाण नेहरू-गांधी परिवार के बेहद करीबी माने जाते हैं। असम के सीएम तरुण गोगोई को राहुल काफी तवज्जो देते हैं। इन तीनों राज्यों में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली बुरी हार के बाद नेतृत्व परिवर्तन की मांग जोर-शोर से उठी। कहा जा रहा है कि तीनों मुख्यमंत्रियों को राहुल गांधी की करीबी काम आई। नहीं तो इन्हें जाना तय था। महाराष्ट्र में तो एनसीपी ने तो पृथ्वीराज चव्हाण के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया था। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने शरद पवार के पाले में गेंद डाल दी। कांग्रेस ने पवार को कमान कबूल करने की शर्त पर पृथ्वीराज चौहान को हटाने की बात कही। लेकिन फिर भी कोंकण क्षेत्र के बड़े नेता नारायण राणे का विकेट कांग्रेस नहीं बचा पाई। चव्हाण के खिलाफ मोर्चेबंदी कम नहीं हुई है बल्कि चुनाव आते-आते भारी उठा-पटक के नजारे देखने को मिल सकते हैं। कांग्रेस ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सीएम की कमान सौंपकर हरियाणा में गैरजाट राजनीति को लंबे वक्त बाद नेपथ्य में डाला था। हुड्डा राहुल के विश्वासपात्र बनकर उभरे। जब उन्होंने सत्ता संभाली तब से प्रदेश के कई कांग्रेस नेताओं ने पार्टी छोड़ दीं। भजन लाल का पूर कुनबा कांग्रेस से विदा हो गया। रॉबर्ट वाड्रा की राज्य में बिजनस गतिविधियों पर सवाल उठे तो हुड्डा खुलकर सोनिया गांधी के दामाद के पक्ष में दिखे। प्रदेश में हुड्डा के खिलाफ बड़े कांग्रेस नेताओं का असंतोष बढ़ता गया लेकिन राहुल गांधी हुड्डा के साथ रहे। इस बार बारी थी गैरजाट नेता राव इंद्रजीत सिंह की। उन्होंने हुड्डा के खिलाफ मोर्चा खोला और बीजेपी का दामन थाम लिया। रही सही कसर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार ने पूरी कर दी। प्रदेश में जाटों को राजनीति के केंद्र में लाने वाली कांग्रेस अब जाट नेताओं का भी विरोध झेल रही है। चौधरी बीरेंद्र सिंह ने खुलकर कह दिया है कि उन्हें भूपेंद्र सिंह हुड्डा का नेतृत्व कबूल नहीं है। नेता भले स्थानीय नेताओं को कटघरे में ला रहे हैं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बता दे रहे हैं कि जो राहुल-सोनिया को पंसद हैं उन्हें वे कबूल नहीं। मतलब राहुल गांधी के नेतृत्व पर चौतरफा सवाल उठ रहे हैं। असम में तरुण गोगोई राहुल का सबसे भरोसेमंद नेतृत्व रहा है। गोगोई राहुल और सोनिया के भी विश्वासपात्र हैं। लेकिन प्रदेश कांग्रेस में बवंडर की स्थिति है। आधे से ज्यादा कांग्रेसी विधायकों को गोगोई का नेतृत्व मंजूर नहीं है। वे हाईकमान के पास अपनी बात बेबाकी से पहुंचा रहे हैं जबकि उनको पता है कि गोगोई केंद्रीय नेतृत्व के करीबी हैं। असम में अल्पसंख्यक बनाम स्थानीय झड़पों में भारी संख्या में मौतें हुईं फिर भी गोगोई की कुर्सी सुरक्षित रही। ऐसा तब है जब कांग्रेस की राजनीति में ऐसी झड़पें फिट नहीं बैठती हैं। मतलब गोगोई के साथ राहुल को भी कांग्रेसी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस को पहले से ही अंदेशा है कि विधानसभा चुनाव में क्या होने वाला है। इसी कारण आखिरी वक्त में उसने नैशनल कान्फ्रेंस से जुदा होने का फैसला किया। लेकिन अब तक इतना कुछ रिस चुका है कि कांग्रेस शायद ही स्थिति को संभाल सके। कांग्रेस में दरारें भर सकती थीं जब किसी राज्य में उसे जीत नसीब होती। लेकिन जैसी राजनीतिक हालात हैं, फिलहाल ऐसा होता मालूम नहीं पड़ रहा। 
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कांग्रेस का संकट

जनसत्ता 23 जुलाई, 2014 : जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस से गठजोड़ टूटने के दूसरे ही रोज कांग्रेस को और बड़े झटके लगे। उसके दो दिग्गज मंत्रियों ने पार्टी छोड़ दी। पृथ्वीराज चव्हाण की सरकार में नारायण राणे उद्योग मंत्री थे। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में उनकी गहरी पैठ रही है। तरुण गोगोई की सरकार में कल तक शिक्षामंत्री रहे हेमंत बिस्व सरमा असम में गोगोई के बाद कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता माने जाते रहे हैं। उन्होंने राज्यपाल से मिल कर अड़तीस विधायकों के समर्थन का दावा भी किया है। कहा जा सकता है कि राणे और सरमा की बगावत के पीछे उनकी महत्त्वाकांक्षा पूरी न होना है। दोनों मुख्यमंत्री पद के इच्छुक थे और इसके लिए उन्होंने कई बार दबाव भी बनाया था। लेकिन मुख्यमंत्री पद की लालसा रखने वाले पार्टी में कई लोग हों, यह स्थिति तो हमेशा से रही है। फिर पार्टी में ऐसी सूरत पहले क्यों नहीं दिखी? दरअसल, कांग्रेस की मौजूदा हालत के पीछे सबसे बड़ी वजह लोकसभा चुनाव में मिली भारी पराजय है। उसे लोकसभा में दस फीसद सीटें भी हासिल नहीं हो सकीं। कई राज्यों में खाता भी नहीं खुल सका। महाराष्ट्र कांग्रेस का गढ़ रहा है, पर यह पहली बार हुआ कि उसे राज्य की अड़तालीस लोकसभा सीटों में से केवल दो मिलीं। अब जहां आने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर पार्टी आश्वस्त नहीं है बल्कि डरी हुई है, वहीं केंद्रीय नेतृत्व का इकबाल कमजोर हुआ है। इसलिए असंतुष्ट गतिविधियों पर काबू पाना मुश्किल हो रहा है। नारायण राणे 2005 में शिवसेना छोड़ कर कांग्रेस में आए थे। उन्होंने कुर्सी की अपनी महत्त्वाकांक्षा कभी छिपाई नहीं। नाराजगी में उन्होंने पहले भी इस्तीफा दिया था, पर तब उन्हें मना लिया गया था। पर इस बार लगता है उन्होंने अपनी अलग राह चुनने का फैसला कर लिया है, क्योंकि कांग्रेस महाराष्ट्र में नेतृत्व परिवर्तन के लिए हरगिज तैयार नहीं है। कांग्रेस के लिए ज्यादा खतरा असम में है, जहां गोगोई सरकार का दो साल का कार्यकाल बाकी है और हेमंत बिस्व सरमा की बगावत उसे अस्थिर कर सकती है। अगर सरमा सरकार गिराने की हद तक नहीं जाते हैं, या इसमें सफल नहीं हो पाएंगे, तब भी गोगोई की सरकार निश्चिंत होकर काम नहीं कर पाएगी। फिर, पार्टी में विद्रोह महाराष्ट्र या असम तक सीमित नहीं है। जम्मू-कश्मीर के एक पूर्व सांसद ने पार्टी छोड़ दी तो पश्चिम बंगाल के तीन कांग्रेसी विधायकों ने तृणमूल कांग्रेस के साथ जाने का संकेत दिया है। हरियाणा के दिग्गज कांग्रेसी और सांसद चौधरी बीरेंद्र सिंह ने भूपिंदर सिंह हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने की सूरत में पार्टी छोड़ने की धमकी दी है। केरल में मुख्यमंत्री ओमन चांडी और कल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे रमेश चेन्निथला के बीच सालों से चली आ रही तकरार चरम पर पहुंच गई है। देर-सबेर कुछ और राज्यों में भी यही नजारा देखने को मिले तो हैरत की बात नहीं होगी। विडंबना यह है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अब भी इन्हें टुकड़े-टुकड़े में देख रहा है। यह सही है कि असंतोष का लावा फूटने के पीछे निजी महत्त्वाकांक्षाएं और राज्य-स्तरीय ढेरों कारण हैं, पर सवाल है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इन स्थितियों को नियंत्रित क्यों नहीं कर पा रहा है। कांग्रेस ने राहुल गांधी के पीछे चलने का फैसला तो कर लिया, पर तब से उसे खोना ही पड़ा है। विपक्ष की कारगर भूमिका निभा कर पार्टी अपनी हैसियत बढ़ाने की उम्मीद कर सकती है, पर राहुल इस मोर्चे पर सक्रिय नहीं दिखते। यह इससे भी जाहिर है कि कांग्रेस को लोकसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना नेता चुनना पड़ा। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पार्टी में टूट-फूट का दोष भाजपा पर मढ़ा है। भाजपा क्यों चाहेगी कि कांग्रेस एकजुट रहे! क्या कांग्रेस ने अपनी अंदरूनी समस्याओं की तह में जाने की इच्छाशक्ति खो दी है? 
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सोनिया की शिकायत

Thu, 21 Aug 2014

महिला कांग्रेस के सम्मेलन में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाजपा को निशाने पर लेते हुए जिस तरह यह कहा कि उसने झूठे सपने दिखाकर लोगों को अपने जाल में फंसाया उससे उससे यही स्पष्ट होता है कि वह यह मानने के लिए तैयार नहीं कि कांग्रेस की हार उसकी अपनी गलतियों के कारण हुई। ऐसा तब है जब कांग्रेस को सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा है और वह लोकसभा में नेता विपक्ष का पद पाने की भी स्थिति में नहीं रह गई है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जिस तरह केवल 44 सीटों पर सिमट गई उससे यह साफ है कि आम जनता उससे न केवल नाराज थी, बल्कि उसे सबक सिखाने के भी मूड में थी। जनता ने कांग्रेस के प्रति ऐसा अविश्वास इसके पहले कभी नहीं दिखाया-यहां तक कि आपातकाल के बाद 1977 में भी नहीं, जब उत्तर भारत में जनता पार्टी की जबरदस्त लहर चल रही थी। अगर सोनिया गांधी और उनके रणनीतिकार इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि भाजपा महज झूठे सपने दिखाकर सत्ता तक पहुंचने में सफल रही तो इसका एक अर्थ यह भी है कि वे अपनी पराजय के मूल कारणों को लेकर चिंतन-मनन करने के लिए तैयार नहीं। इसके कुछ संकेत हार के कारणों का पता लगाने के लिए गठित एंटनी समिति की रपट से भी मिलते हैं। नि:संदेह यह कांग्रेस का अपना आंतरिक मामला है कि वह अपनी पराजय के कारणों पर गंभीरता से विचार करे या न करे, लेकिन अगर वह ऐसा नहीं करती जैसे कि संकेत दिए जा रहे हैं तो फिर वापसी करने के भरोसे को उसकी खुशफहमी ही कहा जाएगा।
राजनीति में हार-जीत लगी रहती है, लेकिन पराजय से उबरने में वही राजनीतिक दल सफल रहते हैं जो भूल सुधार करने के लिए तैयार होते हैं। यह विचित्र है कि सोनिया गांधी यह मानने के लिए तैयार ही नहीं कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली सरकार से कोई गलती हुई। वह यह कहकर एक तरह से जनता को नासमझ ही करार दे रही हैं कि लोग भाजपा के बिछाए जाल में फंस गए। पराजय से अधिक नुकसानदायक है उसके लिए जिम्मेदार कारणों की जानबूझकर अनदेखी करना। अगर कांग्रेस अपना भला चाहती है तो उसे ऐसा करने से बचना होगा। कांग्रेस के नीति-नियंताओं को यह अहसास होना चाहिए कि देश की जनता मनमोहन सरकार से आजिज आ गई थी। मनमोहन सरकार की छवि एक नाकाम और निष्क्रिय सरकार के तौर पर देश में ही नहीं दुनिया में भी उभर आई थी। खराब बात यह रही कि इस छवि से मुक्त होने के लिए कहीं कोई प्रयास नहीं किए गए। उलटे सरकार के आलोचकों और मीडिया को आड़े हाथ लिया गया। यह काम अभी भी जारी है। कांग्रेस अपनी हार के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराकर संतुष्ट हो सकती है, लेकिन इससे उसका भला होने वाला नहीं है। सोनिया गांधी को यह भी शिकायत है कि मोदी सरकार कांग्रेस की नीतियों को ही आगे बढ़ाकर श्रेय लूट रही है। अगर ऐसा है तो इससे उन्हें नाराज होने के बजाय खुश होना चाहिए। आखिर अच्छी नीतियों को आगे बढ़ाना खराब काम कैसे हो सकता है? यह तो हर जिम्मेदार सरकार का दायित्व बनता है कि वह अच्छी नीतियों को आगे बढ़ाए-भले ही वे किसी भी दल या सरकार की हों।
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विरोध और मर्यादा

जनसत्ता 22 अगस्त, 2014 : कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किसी भी कार्यक्रम में शामिल न होने का फैसला देश के संघीय ढांचे और लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। हरियाणा के कैथल में प्रधानमंत्री की सरकारी सभा में मंच पर उपस्थित मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड््डा का जिस तरह लोगों ने तीखा विरोध किया, वह निस्संदेह दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे पहले पिछले हफ्ते महाराष्ट्र के सोलापुर में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में वहां के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण के साथ भी लोगों ने ऐसा ही व्यवहार किया। इन घटनाओं से आहत होकर दोनों मुख्यमंत्रियों ने एलान कर दिया कि वे प्रधानमंत्री के किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेंगे। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने भी अपने सभी मुख्यमंत्रियों को ऐसा ही करने का निर्देश दे डाला। उसने दूसरे विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों से भी अपील की है कि वे प्रधानमंत्री के किसी कार्यक्रम में शरीक न हों। इसके बाद गुरुवार को झारखंड के मुख्यमंत्री के साथ भी प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में वही सिलसिला नजर आया। प्रधानमंत्री के जिन कार्यक्रमों में संबंधित मुख्यमंत्रियों के साथ सभा में उपस्थित लोगों ने अपमानजनक व्यवहार किया, वे सरकारी आयोजन थे, किसी राजनीतिक दल के कार्यक्रम नहीं। मगर विचित्र है कि इस तकाजे को दोनों पक्ष ने समझने की जरूरत नहीं समझी कि सरकारी कार्यक्रम को राजनीतिक आयोजन बनाने से बचा जाए। हरियाणा में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। इसलिए वहां प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के राजनीतिक रूप ले लेने की आशंका पहले से थी। पर न तो मुख्यमंत्री ने इस बात का ध्यान रखा कि सरकारी कार्यक्रम के मंच को वे अपनी उपलब्धियां गिनाने का जरिया बनाने से बचें और न भाजपा नेताओं ने इस मर्यादा का पालन किया। जब लोग शोर मचा कर मुख्यमंत्री का विरोध कर रहे थे, तब प्रधानमंत्री ने भी उन्हें ऐसा करने से नहीं बरजा, मुस्करा कर शांत रहने की हल्की औपचारिक अपील भर की। वे भले अपने दल के प्रमुख नेता हैं, पर सरकारी कार्यक्रम में उनसे दलगत भावना से ऊपर उठ कर व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। संघीय ढांचे में मुख्यमंत्रियों के सहयोग के बगैर केंद्रीय कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना संभव नहीं है। नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि वे सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ मिल कर विकास कार्यक्रमों को आगे बढ़ाएंगे। मगर जिस तरह भाजपा समर्थकों के व्यवहार के चलते यह संकल्प बाधित होता नजर आने लगा है, वह किसी गलत परंपरा का रूप न ले ले, उससे बचने के लिए प्रधानमंत्री को भी अपने सरकारी कार्यक्रमों की मर्यादा निर्धारित करनी होगी। सरकारी मंच के सियासी इस्तेमाल की आशंका को ध्यान में रखते हुए ही बिहार के मुख्यमंत्री ने कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि उन्हें चुनाव वाले राज्यों में अपने सरकारी कार्यक्रमों से बचना चाहिए। यह पहली बार नहीं है, जब केंद्र सरकार को राज्यों में दूसरे दलों की सरकारों के साथ तालमेल बिठा कर चलना पड़ रहा है। सरकारी धन के आबंटन और योजनाओं आदि को लेकर दोनों के बीच टकराव की स्थितियां भी पैदा होती रही हैं, मगर प्रधानमंत्री के सरकारी मंच को राजनीतिक या चुनावी मंच बनाने की कोशिश इस तरह कभी नहीं देखी गई। इस मामले में दोनों पक्षों से सतर्कता और विनम्रता बरतने की अपेक्षा की जाती है। जिस तरह कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों के बहिष्कार का निर्देश दिया है, उससे गलत परंपरा पड़ सकती है। प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री का उपस्थित रहना लोकतांत्रिक शिष्टाचार के तहत जरूरी होता है। लोकतंत्र और संघीय ढांचे का तकाजा यही है कि सरकारी कार्यक्रमों में दलगत टकराव की स्थितियों को टालने के उपाय तलाशे जाएं। 


राह से भटकी कांग्रेस

Sun, 07 Sep 2014 

देश के कई राज्यों में अस्तित्व खो चुकी कांग्रेस पूरी तरह विलुप्त होने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है। इसलिए. क्योंकि वह अभी भी सबक सीखने से इन्कार कर रही है। लोकसभा चुनाव परिणाम के तत्काल बाद पार्टी में सबसे सौम्य और समझदार माने जाने वाले पूर्व रक्षामंत्री एके एंटनी ने पराजय के लिए पार्टी के सांप्रदायिक दृष्टिकोण को जिम्मेदार ठहराते हुए नीति परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया था। यह भी माना जा रहा था कि पार्टी की सूत्रधार सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी के प्रति वफादारी की होड़ प्रदर्शित करने वाली कार्यशैली में परिवर्तन भी होगा। कुछ लोगों ने प्रियंका गांधी वाड्रा को सक्रिय करने की मांग की, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह कांग्रेस प्रमुख ने यह वक्तव्य दिया कि मोदी शासन में सांप्रदायिकता बढ़ी है उससे यही स्पष्ट हुआ कि यह पार्टी अभी भी सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस किस कदर अभी भी दुविधा से जूझ रही है, इसकी एक झलक जनार्दन द्विवेदी के बयान से भी मिली, जिसमें उन्होंने 70 वर्ष से अधिक उम्र वालों के सक्त्रिय पदों से दूर रहने की वकालत की। कांग्रेस ने इसे उनकी निजी राय बताने में देर नहीं लगाई और उन पर आगे बोलने में कुछ बंदिशें भी लगा दी गईं, लेकिन इससे यह साफ हो गया कि कांग्रेस को नेतृत्व और अपनी भावी दिशा नए सिरे से तय करनी होगी।
आम चुनाव में ध्वस्त हो गई पार्टियां आज फिर सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा कर रही हैं। वे ऐसा ही चुनाव के दौरान और उसके पहले भी कर चुकी हैं। उनकी इसी होड़ के परिणाम स्वरूप धु्रवीकरण हुआ। लेकिन उससे लाभ किसका हुआ? जिस स्थिति को कोई भी आंख मूंदकर देख सकता है उसे ये राजनीति करने वाले तत्व खुली आंखों से भी नहीं देख पा रहे हैं या देखना नहीं चाहते। कश्मीर के अलगाववादियों से पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने चेतावनी देने के बाद भी बातचीत की और भारत ने विदेश सचिवों की वार्ता को निरस्त कर दिया। देश की जनता इसका स्वागत कर रही है वहीं कांग्रेस सहित अन्य भाजपा विरोधी दल मनमोहन सिंह काल की समर्पण नीति का ही औचित्य समझा रहे हैं। क्यों? क्योंकि उनका विश्वास है कि देश का एक वर्ग पाकिस्तान की सभी प्रकार की गलत हरकतों के बावजूद उसके प्रति अनुरक्ति रखता है। सांप्रदायिकता भड़काने के लिए सोनिया गांधी ने जिस प्रकार अचानक अभियान शुरू किया है उससे चुनाव के बाद विकास के आधार पर समरसता की दिशा में बढ़ रहे समाज को धक्का लगा है। चुनाव के पूर्व नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता से क्षुब्ध होकर मणिशंकर अय्यर ने उन्हें कांग्रेस के अधिवेशन में चाय बेचने के लिए स्थान देने की बात कहकर उनका मजाक उड़ाया था। क्या परिणाम हुआ?
अब जब देश ही नहीं दुनिया में मोदी की क्षमता की धाक जम चुकी है तब मणिशंकर अय्यर उनको उठाकर समुद्र में फेंक देने का आह्वान कर रहे हैं। कांग्रेस में मणिशंकर अय्यर जैसे कुछ और लोग भी हैं। क्या यह आकलन सही है कि कांग्रेस सचमुच सांप्रदायिक घटनाओं से चिंतित है। कुछ लोगों का मानना है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेशनल हेराल्ड मामले में फंसने और राबर्ट वाड्रा के खिलाफ जमीन घोटाले का मामला होने के कारण कांग्रेस मोदी सरकार पर हमलावर होकर अपना बचाव करना चाहती है। उसका चिंतन शायद आक्त्रमण ही सबसे अच्छा बचाव है पर आधारित है। लेकिन देखना होगा कि इस आचरण की परिणति क्या हो रही है? नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल करने के लिए उसने जैसा काम गुजरात में किया था उसी पर वह उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अमल कर रही है। उसे गुजरात के समान ही परिणाम मिला है और वही सिलसिला जारी रहने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं। यह भाजपा के बढ़ते प्रभाव का ही परिणाम है कि जिस वामपंथ को नष्टकर ममता बनर्जी बंगाल की मुख्यमंत्री बनीं वही अब उसके साथ का आह्वान कर रही हैं। कुछ लोग अपने आप से चिपके रहना पसंद करते हैं।
नरेंद्र मोदी की छवि बिगाड़ने के प्रयास का क्या परिणाम हुआ है, यह तो लोकसभा चुनाव परिणाम से स्पष्ट हो चुका है। फिर भी जिनकी समझ में यह बात नहीं आ रही है, उन्हें समझने के लिए जिन चार राच्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उन राच्यों में कांग्रेस खेमे में भगदड़ और चुनाव पूर्व आकलन के प्रमाण मौजूद हैं। इस स्थिति के बावजूद भाजपा विरोधी दल उसी सांप्रदायिक एजेंडे पर चिपके हुए हैं जिसने उन्हें बुरी तरह पराजित किया। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने पर्दे के पीछे से सत्ता संचालन का सुख भोगा है, लेकिन जब भी और जहां भी दोनों ही खुले मंच से जनता के बीच आए उनकी 'योग्यता' की असलियत सामने आती गई है। कांग्रेस इन्हीं दोनों के सहारे फिर से सत्ता में लौटने की आस में जी रही है। इसके साथ ही वह सहारे की खोज में भी है। क्या लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के रूप में पिटे मोहरों की पिछलग्गू बनना ही उसकी नियति है? उत्तार प्रदेश में सपा और बसपा तो कांग्रेस को दूर से भी स्पर्श करने के लिए तैयार नहीं है। महाराष्ट्र में कांग्रेस अपने सहयोगी दल से परेशान है तो हरियाणा और असम में नेतृत्व के खिलाफ गहरा असंतोष है। इन दोनों ही राच्यों में कांग्रेस नेतृत्व को हर कीमत पर बनाए रखने की नीति का दुष्परिणाम भुगत रही है।
सोनिया गांधी सांप्रदायिकता का उन्माद बढ़ाने के लिए नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाकर उन्हें न तो डगमग कर सकेंगी और न ही कांग्रेस को मजबूती दिला सकेंगी। हां, वह सांप्रदायिक उन्माद को उभारने में योगदान अवश्य करेंगी। सांप्रदायिकता का हौवा खड़ा करके सोनिया गांधी शांत हो गई हैं, लेकिन उन लोगों का हौसला जरूर बुलंद हो गया है जो भारतीयता के खिलाफ हैं। हैरत की बात है कि कांग्रेस एके एंटनी के निष्कर्ष को सही रूप में समझने और उसके अनुरूप अपने कार्य-व्यवहार में बदलाव लाने की इच्छुक नजर नहीं आ रही है। यह स्थिति उसे और अधिक संकट में ही डालेगी।
[लेखक राजनाथ सिंह सूर्य, राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं]
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कागजी तलवार भांजते कांग्रेसी

Thu, 11 Sep 2014

कांग्रेस इस समय अपने आप से लड़ रही है और अपनों से भी। अंदर का घमासान जितना बड़ा है बाहर से उतना नजर नहीं आ रहा है। सबको इंतजार है। किस बात का पता नहीं। शायद एक और झटके का। लोकसभा चुनाव की हार ने कांग्रेस को अभी तक झकझोरा नहीं है। पार्टी में सब कुछ यथावत चल रहा है। पार्टी में बगावत तो नहीं होने वाली क्योंकि बगावत के लिए अपनी ताकत होना जरूरी है। पार्टी में इस समय जो नेता बचे हैं ज्यादातर नामजद हैं। सबकी निष्ठाएं हस्तिनापुर से बंधी हुई हैं। हस्तिनापुर में हाल यह है कि महल के अंदर ही अस्थिरता नजर आ रही है। जब-जब राहुल गांधी पर हमला होता है तो प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने की चर्चा होती है या करवाई जाती है। लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी कांग्रेस विरोधी दलों के निशाने पर थे। चुनाव के बाद वह कांग्रेस नेताओं के निशाने पर हैं। यह सही है कि राहुल गांधी को पार्टी ने औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया था, लेकिन यह भी सच है कि चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। राहुल गांधी पार्टी के लिए कुछ कर पाए हों या नहीं पर अपनी मां और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए उन्होंने जरूर कुछ किया है। चुनाव नतीजे आने के बाद से कांग्रेस के अंदर से राहुल गांधी पर लगातार हमले हो रहे हैं कि वह वोट दिलाने में नाकाम रहे। कोई पार्टी अध्यक्ष पर सवाल नहीं उठा रहा। जिनके हाथ में पार्टी की प्रत्यक्ष और सरकार की परोक्ष बागडोर थी। इस हार में राहुल गांधी अपनी मां का कवच बन गए हैं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर नाकाम रहे तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है। कम से कम राहुल गांधी को तो इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जो लोग पर्दे के पीछे से राहुल गांधी के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी में हैं क्या वे पार्टी के हित में यह कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो उन्हें पीछे से हमला करने की बजाय खुलकर सामने आना चाहिए। सवाल यह भी है कि ये लोग दस साल तक कहां थे। सत्ता और संगठन की मलाई खाने वाले इन कांग्रेसियों को सचमुच पार्टी की चिंता होती तो वे पहले यह तय करते कि पार्टी गांधी परिवार के ही नेतृत्व में चलेगी या दूसरे विकल्पों पर भी विचार करने का समय आ गया है। यह सब तो तब होता जब उद्देश्य पार्टी का भला करने का होता। दरअसल इन नेताओं को अपनी दुकानदारी खतरे में नजर आ रही है। दूसरी तरफ राहुल गांधी के समर्थन में पार्टी के कुछ युवा नेता तलवार भांज रहे हैं। ये दोनों पक्ष वास्तव में गत्तो की तलवार चला रहे हैं। ताकि युद्ध होता हुआ दिखे पर घायल कोई न हो। राहुल गांधी के समर्थन में जो लोग खड़े हुए हैं उनकी तुलना कांग्रेस के पुराने युवा तुर्को से करने की कोशिश हो रही है। ऐसा करने वालों को याद रखना चाहिए कि सोने का पानी चढ़ाने से कोई चीज सोने की नहीं हो जाती। अंदर तक सोना होना चाहिए। उस समय के युवा तुकरें की हैसियत किसी नेता के समर्थन या विरोध से नहीं बनी थी। उन्होंने देश और समाज की विभिन्न समस्याओं और मुद्दों पर अपनी सैद्धांतिक पहचान बनाई थी। वे उस समय इंदिरा गांधी के मददगार बन सके तो सिर्फ इसलिए उनकी अपनी विश्वसनीयता थी। राहुल गांधी के आस-पास जो लोग हैं उन्हें कौन जानता है। एक जयराम रमेश को छोड़ दें तो। कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी के वास्तविक समर्थकों के लिए एक और कठिनाई है कि उनका नेता ही देश समाज के किसी मुद्दे पर अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया है। कांग्रेस की पुरानी पीढ़ी के नेताओं ने चुनाव के बाद राहुल गांधी पर हमला बोला तो पार्टी के करीब सोलह सचिवों ने उनसे मिलकर विरोध दर्ज कराया। ऐसा क्यों हुआ? पार्टी के ही एक युवा नेता की मानें तो यह भी अपने को बचाने के मकसद से किया गया। दोनों पक्ष इस लड़ाई को सोनिया खेमा बनाम राहुल खेमे की बनाना चाहते हैं। एक पर हमला सोनिया गांधी पर हमला है और दूसरे पर हमला राहुल गांधी पर हमला है। सोनिया गांधी बीमार हैं और राहुल गांधी बेजार। ऐसे में गत्तो की तलवारें चलती रहेंगी। इनमें से कोई शरद पवार या ममता बनर्जी नहीं है। इसलिए खुले घात-प्रतिघात की बजाय भितरघात चलेगा। पार्टी के नेतृत्व के रवैये से लग रहा है कि वह एक और हार का इंतजार कर रहा है। तर्क यह है कि अभी संगठन में बदलाव कर दिया और चार राच्यों के विधानसभा चुनाव हार गए तो नए पदाधिकारियों के लिए सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। लोकसभा चुनाव के बाद जो परिस्थितियां बनी हैं उनमें कांग्रेस के लिए काफी लंबे अर्से तक कोई अच्छी खबर आती हुई लगती नहीं। इसके बावजूद कांग्रेस कोई बड़ा फैसला लेने को तैयार नहीं है। लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में कांग्रेस को 48 में से सिर्फ दो सीटें मिलीं। विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार को पार्टी के नेता ही तय मान रहे हैं। ऐसे में राच्य में पार्टी अकेले दम पर चुनाव लड़ती तो क्या होता? हो सकता है कुछ और सीटें हार जाती, लेकिन इसका फायदा यह होता कि पूरे प्रदेश में पार्टी को फिर से खड़ा करने का आधार बनता। कांग्रेस को यह भी पता है कि विधानसभा चुनाव के बाद एनसीपी से उसका गठबंधन चलने वाला नहीं है। इसी तरह से हरियाणा में कांग्रेस नेतृत्व ने पार्टी के भविष्य की चिंता करने की बजाय मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के वर्तमान की चिंता की। उसने वीरेंद्र सिंह जैसे वरिष्ठ और जनाधार वाले नेता के पार्टी से जाने का रास्ता खोल दिया। हुड्डा की पारी पूरी हो चुकी है। हरियाणा में कांग्रेस को हुड्डा से परे देखना चाहिए पर नेतृत्व की नजर है कि हुड्डा से हटती ही नहीं। इसी तरह झारखंड में पार्टी तमाम नकारात्मक राजनीतिक ताकतों के साथ खड़ी हो गई है। पार्टी सूखे कुएं से पानी निकालने का प्रयास कर रही है। यही मुद्दे हैं जिन पर किसी भी राजनीतिक दल के नेतृत्व की भविष्य को देख सकने की समझ की परीक्षा होती है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी फिलहाल तो इस परीक्षा में नाकाम ही नजर आ रहे हैं। यह ऐसी पार्टी है जहां जीत का श्रेय केवल परिवार को मिलता है और हार की जवाबदेही के लिए कलम करने को सिर हमेशा तैयार रहते हैं, लेकिन जब कलम होने वाले सिर खत्म हो जाएंगे तब? जिस फौज की सारी ताकत अपने कमांडर को बचाने में लगी हो युद्ध में उसकी हार तय ही होती है। कांग्रेस में नए कमांडर की तलाश प्रियंका पर जाकर ठहर जाती है। प्रिंयका कांग्रेस के लिए एक पहेली हैं। इस पहेली को कांग्रेस कब तक बूझ पाएगी किसी को पता नहीं। अभी तो हालत यह है कि मौजूदा नेतृत्व पर सवाल उठाने की ताकत किसी में है नहीं और नया नेतृत्व दिखाई देता नहीं। यथास्थिति को बनाए रखने का जितना च्यादा प्रयास होगा वह उतना ही बिगड़ती जाएगी।
[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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मुकाबले से पहले ही हारी कांग्रेस

Thu, 09 Oct 2014

मन के हारे हार है मन के जीते जीत। यह बात किसने कही है यह तो पता नहीं पर इस समय यह उक्ति कांग्रेस पार्टी पर पूरी तरह से लागू होती है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को जिस तरह की शिकस्त का सामना करना पड़ा है, उसने उसके कार्यकर्ताओं से ज्यादा नेताओं को पस्त कर दिया है। दो राज्यों महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। दोनों राज्य कांग्रेस शासित थे। पर कांग्रेस ऐसे चुनाव लड़ रही है मानो इन दोनों राज्यों में वह न तो कभी जीती थी और न जीतने की उम्मीद है। पार्टी जिन राहुल गांधी को अपना भविष्य मानती है वह वर्तमान में ही खोजे नहीं मिल रहे। सोनिया गांधी पार्टी के लिए प्रचार से ज्यादा रस्म अदायगी करती हुई नजर आ रही हैं। उसके बरक्स इन दोनों राज्यों में तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी रही भाजपा नतीजे आने से पहले ही जीती हुई पार्टी नजर आ रही है।
चुनाव में आखिरी दांव मतदाता का ही होता है। इसलिए चुनाव का नतीजा किसी की इच्छा या धारणा के अनुरूप हो यह जरूरी नहीं है। फिर भी जैसे कभी-कभी किसी क्त्रिकेट मैच का नतीजा थोड़ी देर के खेल बाद ही तय लगने लगता है उसी तरह इन दो राच्यों के चुनाव के नतीजे में दो बातें तय सी लग रही हैं। एक, कांग्रेस बुरी तरह हार रही है। दूसरे भाजपा महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा में नंबर एक की पार्टी के रूप में उभरती हुई दिखाई दे रही है। किसको कितनी सीटें मिलेंगी यह तो 19 अक्टूबर को ही पता चलेगा, लेकिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस चुनाव के मैदान में खड़ी हुई नजर ही नहीं आ रही। कांग्रेस में इस तरह की निराशा तो 1977 की हार के बाद भी नहीं दिखी थी। उस समय कांग्रेस और इंदिरा गांधी दक्षिण भारत को छोड़कर पूरे देश में आम लोगों की नजर में खलनायक नजर आ रही थीं। असफल होने पर निराश होना स्वाभाविक है। असफलता जितना सिखाती है, सफलता कभी नहीं सिखा सकती, लेकिन तभी जब कोई सीखना चाहे। जो प्रयास करना ही छोड़ दे उसका असफल होना तो तय है। यही कांग्रेस के साथ हो रहा है।
भाजपा आज जीतती हुई लग रही है क्योंकि उसे विश्वास है कि वह जीत सकती है। इसी विश्वास के बूते उसने हरियाणा में जनहित कांग्रेस के साथ और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन तोड़ दिया। चुनाव से पहले गठबंधन तोड़ने का फैसला भाजपा और उसके शीर्ष नेताओं के नए आत्मविश्वास का नतीजा है। हो सकता है कि यह आत्मविश्वास अति आत्मविश्वास साबित हो, लेकिन भाजपा की सोच वही है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र की एक चुनावी सभा में कहा कि अब युति से मुक्ति का समय है। भाजपा लोकसभा चुनाव में बने माहौल का फायदा उठाकर अपने संगठन का भौगोलिक और संसदीय विस्तार करना चाहती है। उसकी यह कोशिश हरियाणा और महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है। उसकी नजर बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु पर भी है। तमिलनाडु में भाजपा को द्रमुक के बिखराव और अन्ना द्रमुक के संकट में अपने लिए संभावना नजर आ रही है। इसीलिए वह लगातार कोशिश कर रही है कि तमिल फिल्मों के सुपर स्टार रजनीकांत उसके साथ आ जाएं।
हरियाणा, जहां आज तक भाजपा कभी दूसरे नंबर की भी पार्टी नहीं रही वहां सरकार बनाने की गंभीर दावेदार है। कमोबेश यही हालत महाराष्ट्र में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों में आ रही भीड़ और उसका उत्साह किसी दूसरी पार्टी या नेता की चुनावी सभाओं में नजर नहीं आ रहा। भाजपा के विरोधियों की शिकायत बड़ी अजीब है। उनको इस बात पर एतराज है कि प्रधानमंत्री विधानसभा चुनाव में इतनी रैलियां क्यों कर रहे हैं। सवाल यह नहीं है कि मोदी इतनी चुनावी सभाएं क्यों कर रहे हैं। सवाल इस बात का है कि सत्तारूढ़ दल के नेता ऐसा प्रयास क्यों नहीं कर रहे। कांग्रेस में स्टार प्रचारक के नाम पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी हैं। राहुल गांधी कांग्रेस के लिए एक पहेली बने हुए हैं। जिसे सुलझाने की किसी कांग्रेसी में काबिलियत है, ऐसा नजर नहीं आता। और अब तो लगता है कि किसी की इच्छा भी नहीं रही।
राहुल गांधी को कामयाबी के लिए लिफ्ट की तलाश है। वह यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि राजनीति में सीढि़यों से चढ़कर ही ऊपर पहुंचा जा सकता है। अर्थशास्त्र में एक चीज पढ़ाई जाती है- लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न । नेहरू-गांधी परिवार के नाम का जितना लाभ राहुल गांधी को मिलना था मिल चुका है। नए राजनीतिक दौर में अब उस नाम से फायदा होने की बजाय नुकसान हो सकता है, जब तक कि राहुल गांधी अपनी अर्जित प्रतिभा नहीं दिखाते। अब तक लोगों ने उनमें जो देखा है उससे बात नहीं बनने वाली।
दो राच्यों के विधानसभा चुनाव में प्रचार से गायब रहकर वह अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को क्या संदेश देना चाहते हैं। यह भी कोई नहीं जानता कि राहुल गांधी अपनी इच्छा से चुनाव से दूर हैं या संभावित हार की तोहमत से उनको बचाने के लिए उन्हें दूर रखा जा रहा है। कहा यह भी जा रहा है कि वह पार्टी से नाराज हैं कि उन्हें उनके मन मुताबिक बदलाव नहीं करने दिया जा रहा है। कारण जो भी हो हर हार के साथ कांग्रेस पहले से च्यादा निराशा के गर्त में गिरती जाएगी। हार का यह सिलसिला जल्दी रुकता हुआ नहीं दिख रहा। संसद में कांग्रेस संसदीय दल का नेता संसद सत्र के बाद कहां हैं यह किसी को पता नहीं। सोनिया गांधी शरीर और मन दोनों से थकी नजर आती हैं। राहुल गांधी से कांग्रेस के लोग डरे हुए भी हैं और परेशान भी। डरे हुए इसलिए कि कोई अपने भविष्य को लेकर मुतमइन नहीं है। किसी को पता नहीं कि राहुल गांधी किसकी सलाह पर चलते हैं। जिसकी सलाह पर चलते हैं उसकी कब तक सुनेंगे यह भी कोई नहीं जानता।
इन दो राच्यों के चुनाव परिणाम कुछ भी आएं पर उनमें जीतने वाली पार्टी का नाम कांग्रेस नहीं होगा। कांग्रेस भी जैसे इस हार की घोषणा का इंतजार ही कर रही है। चुनाव नतीजों की घोषणा के बाद राहुल गांधी से च्यादा सोनिया गांधी पर दबाव होगा। उन्हें राहुल गांधी के बारे में फैसला करना पड़ेगा। यह फैसला राहुल गांधी के मन मुताबिक भी हो सकता है और उनकी मर्जी के खिलाफ भी, लेकिन यथास्थिति को अब और च्यादा समय तक बनाए नहीं रखा जा सकता। सोनिया गांधी अपने राजनीतिक जीवन के सबसे संकटमय दौर से गुजर रही हैं। कांग्रेस के अंदर से आ रही खबरों के मुताबिक राहुल गांधी अपनी मर्जी के मुताबिक संगठन में आमूल बदलाव करना चाहते हैं। सोनिया गांधी इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें अपने बेटे और पार्टी के हितों में संतुलन बिठाना है। सोनिया गांधी के लिए फैसले की घड़ी करीब आ रही है। हो सकता है कि उनका फैसला गलत हो जाए, लेकिन गलती करने से डरना सबसे बड़ी गलती होती है।
[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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संकीर्ण सोच का प्रदर्शन

Tue, 14 Oct 2014

कांग्रेस ने शशि थरूर को प्रवक्ता पद से हटाकर यह जताने की कोशिश की है कि उसने उनके मामले में वही किया जो केरल कांग्रेस कमेटी चाह रही थी, लेकिन यह स्मरण करना कठिन है कि इसके पहले इस दल ने अपनी राज्य समिति के कहने पर ऐसा कोई फैसला किया हो। कांग्रेस अपनी राज्य शाखा की आड़ लेने के बावजूद इस तथ्य को ओझल नहीं कर सकती कि थरूर को इसीलिए प्रवक्ता पद से चलता किया गया, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की न केवल तारीफ की, बल्कि उसमें शामिल होना भी स्वीकार किया। चूंकि स्वच्छ भारत अभियान को दल विशेष का कार्यक्रम नहीं कहा जा सकता इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि प्रधानमंत्री के निमंत्रण पर शशि थरूर सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करते। एक जिम्मेदार राजनेता से ऐसा ही अपेक्षित था, लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस यह चाह रही थी कि शशि थरूर प्रधानमंत्री की पहल का विरोध करते और इसीलिए उसने उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया। ऐसा करके उसने अपनी संकीर्ण सोच का ही परिचय दिया है। उसके इस फैसले के बाद उससे यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह रचनात्मक विपक्ष की भूमिका का परिचय देगी। वह तो एक ऐसे रास्ते पर चलने को आमादा दिख रही है जहां विपक्ष का मतलब सत्तापक्ष के हर काम का विरोध करना होता है। सत्तापक्ष के अंध विरोध की यह मानसिकता लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है।
यह कांग्रेस की तंग सोच का ही परिणाम है कि वह स्वच्छ भारत अभियान को दलगत राजनीति से परे करके नहीं देख पा रही है। उसे पता होना चाहिए कि किस तरह मोदी के कंट्टर आलोचक और पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने न केवल स्वच्छ भारत अभियान की तारीफ की, बल्कि रेलवे स्टेशन पर खुद झाड़ू भी लगाई। सचिन तेंदुलकर भी ऐसा कर चुके हैं, जिन्हें कांग्रेस ने ही राज्यसभा का मनोनीत सदस्य बनाया था। क्या वह भारत स्वच्छता अभियान में शामिल होने के लिए सचिन तेंदुलकर की भी आलोचना करने के लिए तैयार है? कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व को पुरानी पीढ़ी के अपने नेताओं से यह जानना चाहिए कि 1971 के युद्ध के बाद किस तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी की प्रशंसा की थी। विपक्ष की ओर से सत्तापक्ष के अच्छे कार्यो की सराहना तो होनी ही चाहिए। इससे ही लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी और राजनीति की गरिमा बढ़ेगी। यदि कांग्रेस को मोदी की प्रशंसा करने वालों से इतना ही वैर है तो फिर उसे यह बताना चाहिए कि उसने केरल के पूर्व माकपा सांसद एपी अब्दुल्ला कुट्टी को पार्टी में क्यों शामिल किया? यह कोई छिपी बात नहीं कि माकपा ने मोदी की तारीफ करने के कारण ही अब्दुल्ला कुट्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया था। शशि थरूर को प्रवक्ता पद से हटाने के अपने फैसले को कांग्रेस चाहे जितना उचित बताए, उसने देशवासियों की नजरों में खुद को हंसी का ही पात्र बनाया है। उसने अपने इस फैसले से अपनी कंट्टर सोच के साथ ही यह भी प्रकट किया है कि पार्टी में लोकतांत्रिक सोच वाले लोगों के लिए स्थान सीमित होता जा रहा है।
[मुख्य संपादकीय]
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परिवार हटाओ-पार्टी बचाओ

Wed, 22 Oct 2014

जब हर तरफ मोदी लहर-प्रभाव-जादू का जोर हो तो फिर इस पर कम ही ध्यान जाता है कि जो पराजित-पस्त होने के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों से दो-चार हैं उनका क्या होगा? हरियाणा-महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम वाले दिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आंध्र प्रदेश में हुदहुद तूफान से हुई तबाही का जायजा ले रहे थे। संभव है कि वह शीघ्र ही हालिया चुनावी तूफान से तबाह हुई अपनी पार्टी का भी जायजा लें। यह वही बता सकते हैं कि वह पहले लोकसभा चुनाव और फिर हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव के समय आई मोदी लहर-अमित शाह के शब्दों में सुनामी-से डगमगाई कांग्रेस की नैया किस तरह खेएंगे? हो सकता है कि उनके पास कोई बेहतर रणनीति हो, लेकिन इसमें दोराय नहीं हो सकती कि जब कांग्रेस रूपी नौका में छिद्र होते जा रहे हैं तब उनके हाथ में पतवार भी नहीं दिखाई दे रही है। हरियाणा-महाराष्ट्र के बाद झारखंड और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस कुछ बेहतर कर पाएगी, इसमें संदेह है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की राहें अलग हो चुकी हैं। झारखंड में कांग्र्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार में कनिष्ठ सहयोगी है। अपना दिल बहलाने और अपने समर्थकों में जोश भरने के लिए कांग्रेस यह कह सकती है कि वह जम्मू-कश्मीर और झारखंड समेत 11 राच्यों में सत्ता में है, लेकिन कर्नाटक और केरल को छोड़ दें तो शेष सात अन्य राच्य राजनीतिक तौर पर कोई खास अहमियत नहीं रखते। उत्ताराखंड, हिमाचल, असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय में कांग्रेस का सत्ता में होना यह भी बताता है कि वह कमजोर होने के साथ सिमटती भी जा रही है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि उपरोक्त 11 राच्यों में लोकसभा की कुल सीटें 110 से भी कम हैं। स्पष्ट है कि आज के दिन कांग्रेस का भविष्य स्याह नजर आता है और कोई चमत्कार ही उसे अगले आम चुनाव में 44 से आगे 100 के पार ले जा सकता है।
अगर कांग्रेस की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि एक समय भाजपा ने भी लोकसभा में दो ही सीटें पाई थीं तो मौजूदा हालात में वह बहुत मजबूत नहीं कहा आएगा, क्योंकि भाजपा ने समय के साथ न केवल खुद को बदला, बल्कि उसका नेतृत्व भी बदलता गया। हो सकता है कि कांग्रेस भी खुद को बदलने की कोशिश करे, लेकिन इसके आसार दूर-दूर तक नहीं कि उसका नेतृत्व भी बदलेगा। कांग्रेसियों के लिए राहुल गांधी अभी भी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं। कांग्रेसजन यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि जिन्हें वह अपना खेवनहार-तारणहार कह रहे हैं उनके हाथ में पतवार ही नहीं दिखती। वह शायद पतवार चलाना भी नहीं जानते। चूंकि राहुल गांधी युवा हैं इसलिए उनकी तुलना अन्य युवा नेताओं से होना स्वाभाविक है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि उनकी तुलना पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उन बचकाने बिलावल भुट्टो से भी हो रही है जो अपनी राजनीतिक नासमझी के कारण इन दिनों हंसी का पात्र बने हुए हैं। राहुल न केवल च्वलंत मसलों पर मौन रहते हैं, बल्कि देश और खुद अपनी पार्टी के गाढ़े वक्त में अदृश्य भी दिखते हैं। जब कभी वह बोलते भी हैं तो या तो विवाद खड़ा हो जाता है या उनका कहा हुआ मजाक का विषय बन जाता है। वह यदा-कदा राजनीतिक रूप से परिपक्व होने के संकेत देते हैं, लेकिन जल्द ही ऐसा कुछ कह या कर गुजरते हैं कि सारी उम्मीदें ध्वस्त हो जाती हैं और फिर एक से गिनती गिनने की नौबत आ जाती है। नि:संदेह उनके पास राजनीति, समाज और शासन में सुधार के लिए कुछ विचार दिखते हैं, लेकिन शायद वे व्यावहारिक नहीं हैं या फिर कांग्रेस में उन्हें लागू ही नहीं किया जा सकता। पता नहीं क्यों उनके रुख-रवैये से यही लगता है कि राजनीति उनके वश की नहीं।
कांग्रेस की समस्या यह है उसे एकजुट रखने के लिए गांधी परिवार चाहिए, लेकिन इस तथ्य का दूसरा पहलू यह है कि गांधी परिवार अब आम जनता को प्रेरित-आकर्षित करने की क्षमता खो चुका है। आज के भारत में वह पीढ़ी मुश्किल से नजर आती है जो कांग्रेस को सिर्फ इसलिए वोट देना पसंद करे, क्योंकि उसका नेतृत्व सोनिया-राहुल कर रहे हैं। कुछ प्रचार प्रिय कांग्रेसी जब-तब प्रियंका लाओ पार्टी बचाओ का नारा लगाते रहते हैं। ऐसे कांगेसजन जितनी जल्दी यह समझ लें तो बेहतर है कि प्रियंका गांधी राहुल के मुकाबले बस थोड़ी च्यादा भीड़ बटोरने और मीडिया में कुछ अतिरिक्त स्थान पाने में ही समर्थ हो सकती हैं। उनके साथ एक समस्या यह भी है कि वह गांधी के साथ वाड्रा भी हैं और वाड्रा के बारे में कुछ न कहना-लिखना ही बेहतर है। कुछ कांग्रेसजन ऐसे भी हैं जो यह जताते रहते हैं कि अगर सोनिया गांधी पूरी तौर पर सक्रिय होतीं और राहुल के बजाय खुद सारे फैसले ले रही होतीं तो आज हालात दूसरे होते। यह भी एक बड़ा मुगालता है। कांग्रेस का तो बेड़ा ही इसलिए गर्क हुआ, क्योंकि सोनिया गांधी निष्कि्त्रय और निष्प्रभावी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर बैठाए रहीं। यदि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह के नाकाम नेतृत्व को लेकर मूकदर्शक नहीं बनी रहतीं तो जनता कांग्रेस से इतनी आजिज नहीं आई हुई होती।
बेहतर हो कि कांग्रेसजन परिवार से परे भी कुछ सोचें। और भी बेहतर होगा कि कांग्रेस में भी भाजपा की तरह कोई मार्गदर्शक मंडल बने। सोनिया-राहुल-प्रियंका भाजपा सरीखे कांग्रेसी मार्गदर्शक मंडल के लिए सबसे मुफीद हैं। कांग्रेस में जनाधार वाले काबिल नेताओं की कमी नहीं, लेकिन अभी उनकी आधी से च्यादा ऊर्जा राहुल गांधी के प्रति निष्ठा जताने और उनके बेढब बयानों को भी सही करार देने में खप जाती है। इससे परिवार का तो हित सध सकता है, पार्टी का नहीं। नरेंद्र मोदी के गुजरात से निकलकर राष्ट्रीय पटल पर छा जाने के बाद कांग्र्रेस को दीवार पर लिखी यह इबारत अच्छे से पढ़नी चाहिए कि अब देश की जनता उसके साथ खड़ी होगी जो कुछ करके दिखाने में समर्थ होगा और अपने कामों से भरोसा पैदा करेगा।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]


Tuesday 15 July 2014

कांग्रेस

दिखावटी सक्रियता   
  Fri, 21 Feb 2014

यह दयनीय है कि जब आम चुनावों की घोषणा किसी भी दिन होने ही वाली है तब केंद्र सरकार ऐसे अनेक फैसले ले रही है जिन पर अमल की संभावनाएं नहीं नजर आ रही हैं। यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार ने विगत दिवस जो फैसले लिए वे समय रहते क्यों नहीं लिए गए? बात चाहे सच्चर कमेटी की सिफारिशों के तहत समान अवसर आयोग के गठन को मंजूरी देने की हो अथवा 7200 किलोमीटर लंबाई की सड़कों को राजमार्ग बनाने की या फिर नया वन क्षेत्र तैयार करने की-ये सारे फैसले इसलिए दिखावटी ही कहे जाएंगे, क्योंकि केंद्र सरकार चाहकर भी इनके अमल की प्रक्रिया को गति देने में सक्षम नहीं हो सकती। कोई आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार की ओर से इन फैसलों को अपनी उपलब्धियों की सूची में दर्ज कर लिया जाए, क्योंकि हाल के कुछ फैसलों के संदर्भ में ऐसा ही किया गया है। यह बात और है कि इनमें से अभी कुछ फैसले कागजों पर ही हैं। एक विचित्र बात यह भी है कि कैबिनेट ने कोयला नियामक के गठन को तो मंजूरी दे दी, लेकिन बिजली संयंत्रों को कोयले की आपूर्ति के संदर्भ में कोई फैसला नहीं कर सकी। ऐसा तब हुआ जब यह जगजाहिर है कि बिजली कंपनियां कोयले की कमी से जूझ रही हैं। एक तथ्य यह भी है कि केंद्र सरकार की नीतिगत पंगुता के चलते राजमार्गो, बंदरगाहों और बिजली संबंधी सैकड़ों करोड़ रुपये की परियोजनाएं एक अर्से से अटकी हुई हैं। इन अटकी परियोजनाओं ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के साथ ही प्रगति की रफ्तार को भी रोकने का काम किया है।
हैरान करने वाली हकीकत यह है कि केंद्र सरकार तब भी नहीं चेती जब उसे बार-बार यह याद दिलाने की कोशिश की जाती रही कि अटकी हुई परियोजनाओं के कारण अर्थव्यवस्था की प्रगति प्रभावित हो रही है। चेतने के बजाय उन लोगों को झिड़कने का काम किया गया जिन्होंने केंद्र सरकार से फैसलों में तेजी लाने का आग्रह किया। सरकार की ओर से अर्थव्यवस्था के संकट के लिए तरह-तरह की दलीलें दी जाती रहीं। इन दलीलों में कुछ आधार हो सकता है, लेकिन किसी को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार के स्तर पर वे फैसले भी क्यों नहीं लिए जा सके जो पूरी तरह उसके हाथ में थे और जिन्हें अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक माना जा रहा था? अब तो इतनी देर हो चुकी है कि जो फैसले लिए भी जा रहे हैं उनका कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आने वाला। इसका कोई मतलब नहीं कि हाल में कुछ परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई गई है, क्योंकि मौजूदा माहौल में इसकी उम्मीद बिल्कुल भी नहीं कि उन्हें आगे बढ़ाने का काम सही तरह से हो सकेगा और देरी के दुष्परिणामों से बचा जा सकेगा। किसी को यह बताना चाहिए कि आखिर पिछले कार्यकाल के मुकाबले इस कार्यकाल में राजनीतिक रूप से कहीं अधिक सशक्त नजर आने वाली मनमोहन सिंह सरकार देश को सही दिशा देने में नाकाम क्यों रही? केंद्रीय सत्ता की नाकामी अब एक सच्चाई है। कितने भी दावे क्यों न कर लिए जाएं, नाकामी का दाग मिटने वाला नहीं है। दुर्भाग्य से नाकामी की यह कहानी हर मोर्चे पर नजर आ रही है।
[मुख्य संपादकीय]
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अधूरा हिसाब  

 Sat, 04 Jan 2014

दस सालों में तीसरी बार और अपने कार्यकाल के आखिरी समय मीडिया के सवालों का जवाब देने आए प्रधानमंत्री के पास कहने-बताने को बहुत कुछ था। उन्होंने तमाम सवालों के जवाब भी दिए, लेकिन शायद ही कोई जवाब ऐसा रहा हो जो जनता को संतुष्ट करने लायक रहा हो। ऐसा लगता है कि शायद इसी कारण उन्होंने भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के खिलाफ तीखा हमला बोला। इस पर आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने जोरदार पलटवार किया। यह प्रेस कांफ्रेंस इसलिए नहीं थी कि प्रधानमंत्री से भविष्य की राजनीतिक चुनौतियों के बारे में जाना जा सके। यह निराशाजनक है कि प्रधानमंत्री अपनी सरकार की नाकामियों पर किसी भी सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दे सके। यह स्वाभाविक ही था कि उनके सामने सबसे ज्यादा सवाल भ्रष्टाचार को लेकर उठे, लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से यह कह दिया कि जो भी घपले-घोटाले हुए वे संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में हुए। नि:संदेह ऐसा ही हुआ, लेकिन क्या तथ्य यह नहीं कि इन घोटालों का खुलासा संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में हुआ? भले ही प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के मामले में यथोचित कार्रवाई करने का दावा कर रहे हों, लेकिन तथ्य यह है कि उन्होंने कथित तौर पर जो कार्रवाई की उससे न तो देश की जनता को संतुष्टि मिली और न ही भ्रष्ट तत्वों के दुस्साहस पर लगाम लगी और शायद यही कारण है कि घपले-घोटालों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं। प्रधानमंत्री ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों पर जिस तरह यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली कि उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं और उन्हें पता करने का समय नहीं मिला है उससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के प्रति उनकी अनिच्छा और सीमाओं का ही रेखांकन हुआ।  प्रधानमंत्री अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं और उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह तीसरी पारी के लिए दावेदार नहीं हैं, लेकिन वह यह साफ नहीं कर सके कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिनके चलते वह मैदान छोड़ रहे हैं? विचित्र यह भी है कि वह अपने दूसरे कार्यकाल की एक भी उपलब्धि का उल्लेख नहीं कर सके। वह इसका भी कोई ठोस जवाब नहीं दे सके कि उनके नेतृत्व में कम से कम आर्थिक मोर्चे पर जो कुछ अर्जित किया जाना था वह क्यों अर्जित नहीं किया जा सका? नाकामी की यह कहानी तब लिखी गई जब प्रधानमंत्री स्वयं एक ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री हैं। उनके नेतृत्व में आर्थिक सुधार जिस तरह अटके रहे उससे देश-दुनिया में यही संदेश गया कि केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने और विकास की प्रक्त्रिया को गति देने के प्रति गंभीर नहीं। मनमोहन सिंह ने महंगाई रोकने के मामले में अपनी नाकामी तो स्वीकार की, लेकिन देश की जनता को यह अच्छी तरह से स्मरण है कि अभी तक किस तरह रह-रहकर यह आश्वासन दिया जाता था कि महंगाई तो चंद दिनों की ही बात है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह सवालों के जवाब दिए उससे उन्होंने खुद को एक नाकाम शासक के रूप में ही पेश किया। यह बात और है कि उन्होंने अपनी गलतियां स्वीकारने से इन्कार कर दिया। भले ही उन्हें यह उम्मीद हो कि इतिहास उनके प्रति दयालु होगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इतिहास वर्तमान से अलग नहीं होता।

डूबती नाव बचाने की कवायद  
 Sun, 26 Jan 2014

राहुल गांधी के नौ हथियार, दूर करेंगे भ्रष्टाचार। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का यह नया नारा राहुल गांधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सर्वाधिक गंभीर साबित करने की एक कोशिश है। हाल की एआइसीसी बैठक में भी इन्हीं नौ हथियारों पर सर्वाधिक चर्चा हुई है। निश्चित तौर पर राजनीतिक प्रक्त्रिया में नारों की भी अहम भूमिका होती है, लेकिन क्या वाकई संप्रग-2 भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर रही है? क्या वास्तव में ऐसे नारे कांग्रेस की नैया डूबने से बचा सकते हैं?  दरअसल जिन नौ कानूनी प्रावधानों के जरिये भ्रष्टाचार को खत्म करने का दावा किया जा रहा है उनमें से तीन कानून बन चुके हैं, जबकि छह अभी लंबित विधेयक हैं। कानून में सूचना के अधिकार की बात करें तो यकीनन इस कानून का प्रभाव दिखा है। कई खुलासे भी हुए हैं, लेकिन जब राजनीतिक दलों को इसके दायरे में लाने की चर्चा हुई तो राहुल गांधी की चुप्पी और कांग्रेस की सहमति के बीच पार्टियों के विरोध के चलते राजनीतिक पारदर्शिता की उम्मीद अधूरी ही रह गई। लंबे इंतजार के बाद संसद के बीते शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पर मुहर तो जरूर लगी, लेकिन लोकपाल की नियुक्ति जैसा बुनियादी काम ही अभी तक नहीं हो सका है। इसी तरह याद नहीं आता कि काला धन निरोधक कानून के तहत भी अब तक किसी बड़ी मछली को पकड़ा गया हो?  उधर छह लंबित विधेयकों को पार्टी के नारे का हिस्सा बनाना केवल राजनीतिक श्रेय लेने की कोशिश भर है, क्योंकि इन्हें पहले संसद में पारित कराना होगा। केवल तभी कानून के तौर पर यह सब अपना प्रभाव छोड़ सकेंगे। वैसे लंबित विधेयकों का राजनीतिक श्रेय लेना हो तो महिला आरक्षण जैसे विधेयकों का श्रेय कई सरकारें ले सकती हैं। वैसे भी भ्रष्टाचार विरोधी इन लंबित विधेयकों को पारित कराने के लिए सरकार को आखिरी सत्र तक क्यों रुकना पड़ा? बीते साढे़ नौ वषरें में ऐसे कानून क्यों नहीं बन सके? व्हिसिल ब्लोअर विधेयक दो वषरें से राज्यसभा में लंबित क्यों है? आखिर क्यों सिटिजन चार्टर विधेयक की वर्ष 2011 में पेश होने के बाद सुध नहीं ली गई? जब मल्टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश, महिला सुरक्षा, भारत-अमेरिका परमाणु करार जैसे कई मामलों पर तेजी से विधेयक पारित हो सकते हैं तो भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक क्यों नहीं? जाहिर है यहां बात सुविधा और इच्छाशक्ति की है।  इन सबके बीच, सबसे अहम सवाल यह भी है कि क्या राहुल गांधी वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं? यदि हां तो जब संप्रग-2 के शासनकाल में एक के बाद एक घोटाले और अनियमितता के मामले सामने आते रहे तब राहुल गांधी मौन क्यों रहे? हालांकि दागी नेताओं को बचाने वाले अध्यादेश को बकवास बताकर फाड़ने की बात करके राहुल गांधी ने यकीनन अपनी गंभीरता दर्शाई थी। लोकपाल विधेयक को पारित कराने का श्रेय भी पार्टी राहुल गांधी को ही देती है। नतीजा चाहे भी हो, लेकिन आदर्श सोसाइटी मामले में भी राहुल पुनर्विचार की बात करते हैं। मौजूदा स्थिति में भ्रष्टाचार विरोधी इन सारे विधेयकों को एक साथ लाने के पीछे भी राहुल गांधी का ही दबाव बताया जाता है। लेकिन क्या यह सब पर्याप्त है? याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर सरकार के आधा दर्जन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा है। 2जी, कोयला ब्लॉक आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, वीवीआइपी हेलीकॉप्टर खरीद, रेलवे घूस, रॉबर्ट वाड्रा संपति विवाद जैसे ढेरों मामले बीते पांच वर्ष छाए रहे हैं। सर्वोच्च अदालत, मीडिया, विपक्ष और कैग जैसी संस्थाएं लगातार सरकार को कठघरे में खड़ी करती रही हैं, जिसके चलते संसदीय सत्रों का बड़ा हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। स्वयं प्रधानमंत्री भी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बीच भ्रष्टाचार के मोर्चे पर अपनी नाकामी स्वीकार चुके हैं। उधर आगामी लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का बड़ा चुनावी मुद्दा भी भ्रष्टाचार ही होगा। भ्रष्टाचार के विरोध से प्रारंभ हुआ आंदोलन भी अब आम आदमी पार्टी की शक्ल में एक बड़ी राजनीतिक चुनौती बन चुका है। पिछले 2-3 वषरें में विपक्ष द्वारा कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय साबित करने की पुरजोर कोशिश की गई है। सोशल मीडिया में इसका प्रभाव दिखता भी रहा है। यह भ्रष्टाचार ही है, जो एक मुद्दे के तौर पर संप्रग-3 के सपने को पटरी से उतारता प्रतीत होता है। हालांकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सिर्फ कांग्रेस को कोसना भी उचित नहीं होगा। राजनीतिक भ्रष्टाचार हर दल के लिए स्वीकार्य है। येद्दयुरप्पा की भाजपा में वापसी की खबर इसका ताजा उदाहरण है। अन्य दल भी इससे अछूते नहीं हैं।  वैसे एआइसीसी बैठक में भ्रष्टाचार के मोर्चे पर राहुल एंग्रीयंगमैन जैसी आक्रामक भूमिका में नजर आते हैं। भरोसा दिलाते हैं कि लंबित छह विधेयकों के पारित होने पर भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। हालांकि इस पर फिलहाल भरोसा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मामला सामाजिक सोच और राच्य प्रशासन जैसी जटिलताओं से भी जुड़ा है। फिर भी उनकी इस आक्रामकता से कार्यकर्ताओं के मनोबल पर सकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों पर राहुल ऐसी आक्रामकता पहले भी दिखाते तो शायद बेहतर होता। बहरहाल, राहुल गांधी के सामने अगले तीन महीनों में स्वयं को भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर साबित करने की बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में यह नारा चुनावी महासमर में कांग्रेस की कितनी मदद करता है, चुनावी नतीजों तक इसका इंतजार रहेगा।


जंगल-जंगल बात चली है 
 नवभारत टाइम्स | Jan 27, 2014,
यूपीए शासन के पिछले दस वर्षों में 6 लाख एकड़ से ज्यादा जंगल विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गए। इसके अलावा इसी अवधि में 4 लाख एकड़ से ज्यादा जंगल में तेल और खनिज पदार्थों की संभावनाएं तलाशने की इजाजत दे दी गई। इतना ही नहीं, करीब 8 लाख एकड़ जंगल में किसी न किसी तरह की परियोजनाएं लगाने के प्रस्ताव केंद्र तथा राज्य सरकारों के विचाराधीन हैं। इन सबको जोड़ लिया जाए तो विकास की भेंट चढ़ने वाले जंगलों का कुल रकबा 26 लाख एकड़ से भी ज्यादा हो जाता है, जो पूरे पंजाब राज्य का करीब डेढ़ गुना बैठता है। यह हाल तब है जब यूपीए सरकार पर अक्सर परियोजनाओं में अनावश्यक देरी करने का आरोप लगता रहा है। पिछले दोनों केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रियों जयराम रमेश और जयंती नटराजन को ऐसे ही आरोपों के बीच पद से हटाया गया। साफ है कि इंडस्ट्री का दबाव केंद्र सरकार पर इस बात के लिए था कि परियोजनाएं अधिक से अधिक और जल्द से जल्द मंजूर की जाएं। निश्चित रूप से इंडस्ट्री की इस बेचैनी की कुछ जायज वजहें हैं। उनको दुनिया में जिन प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के सामने न केवल टिके रहना है, बल्कि खुद को उनसे बेहतर साबित करते रहना है, उनको मिलने वाली सहूलियतों के संदर्भ में ही चीजों को देखना होगा। ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं कि इंडस्ट्री इस बात की शिकायत करे कि उसे जंगल काटने की इजाजत देने में देर होती है, लिहाजा प्रधानमंत्री संबंधित विभाग के मंत्री को बदल कर यह संदेश दें कि ऐसा विलंब अनुचित है। मगर, यहां सवाल उठता है कि अगर अगले 10, 20 या 50 वर्षों में देश के सारे जंगल काट दिए जाएं तो क्या देश का सर्वश्रेष्ठ विकास हो जाएगा? देश को रोजी-रोजगार की जरूरत है, इसलिए इंडस्ट्री की चिंता को हर कोई सिर-आंखों पर लेता है। लेकिन इस क्रम में हम इस सवाल से साफ कन्नी काट लेते हैं कि इस खास तरीके के विकास की कीमत हमें किन-किन रूपों में चुकानी पड़ रही है। बार-बार विध्वंस पर उतारू मौसम का बदलता चक्र हमें दिखता है, जब-तब सूनामी की लहरें हमें बेचैनी से भर जाती हैं, जंगल को अपने सीने से लगाए रातोंरात बेघर हो जाने वाले आदिवासी समाज की मासूमियत भी हमें प्रभावित करती है, लेकिन इन सब चीजों के लिए जिम्मेदार कारकों पर विचार करने की जहमत हम नहीं उठाते। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित अपने भाषण में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी स्थिरता की जरूरत बताते हुए कहा कि देश को ऐसी सरकार चाहिए जो विकास के प्रति प्रतिबद्ध हो। इसमें दो राय नहीं कि देश में विकास दर के आंकड़े ऊंचे रहने चाहिए। लेकिन, इसके वैकल्पिक रास्तों के बारे में सोचने और उनपर अमल करने की कोशिशें हमने छोड़ ही दी हैं। शायद हर एक परियोजना पर अलग से सोचने पर उसका कोई ऐसा रास्ता निकल आए, जिससे जंगलों और उनपर निर्भर लोगों का कम से कम नुकसान होता हो। ऐसे रास्तों के लिए मशक्कत हम आज नहीं करेंगे तो कल को झख मारकर हमें यही सब करना पड़ेगा, और तब शायद रास्ता बदलने का नुकसान भी बहुत ज्यादा हो। आखिर यह सवाल भारत ही नहीं, इस पूरे ग्रह के भविष्य का है।
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राहुल गांधी

दंगों पर दोहरा रवैया
   Wed, 29 Jan 2014

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के इस कथन पर व्यापक प्रतिक्रिया होनी ही थी कि 2002 के गुजरात और 1984 के दिल्ली के दंगों में अंतर है और सबसे बड़ा अंतर यह है कि गुजरात सरकार तो दंगों को भड़काने में शामिल थी, लेकिन केंद्र सरकार ने सिख विरोधी दंगों को रोकने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं, अदालत से क्लीन चिट मिल जाने के बावजूद वह नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों का दोषी मानने पर अड़े हैं। यह और कुछ नहीं कांग्रेस उपाध्यक्ष के दोहरे मानदंड का प्रमाण है। वह कांग्रेस के लिए अलग और विरोधी दलों के अलग कसौटी सिर्फ इसलिए रख रहे हैं ताकि राजनीतिक और चुनावी लाभ उठाया जा सके। सबसे खराब बात यह है कि इस क्रम में वह अदालती निर्णय को भी महत्वहीन साबित करने पर तुले हैं। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गुजरात दंगों की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में उसके ही द्वारा गठित विशेष जांच दल ने की थी। माना कि इस जांच दल के निष्कर्ष कांग्रेस के लिए सुविधाजनक नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह वोटों के लालच में अल्पसंख्यकों के बीच मोदी का हौवा खड़ा करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करे। नि:संदेह अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न कारणों से हुए दंगों की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन इस पर गौर अवश्य किया जा सकता है कि उन्हें रोकने के लिए संबधित सरकारों ने कैसे प्रयास किए? गौर इस पर भी किया जाएगा कि दंगों के दोषियों को दंडित करने के लिए क्या प्रयास किए गए और उनमें कितनी सफलता मिली?  राहुल गांधी की मानें तो 1984 में दिल्ली में भड़के सिख विरोधी दंगों को रोकने के लिए केंद्र की तत्कालीन सरकार ने तो भरसक प्रयास किए, लेकिन 2002 में गुजरात सरकार सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। राहुल गांधी इस नतीजे पर चाहे जैसे पहुंचे हों, वस्तुस्थिति उनके नजरिये से मेल नहीं खाती और यही कारण है कि वह विरोधी दलों के नेताओं के निशाने पर हैं। यह साफ है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष गुजरात दंगों को एक खास नजरिये से देख रहे हैं और ऐसा करते समय सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में केंद्र की तत्कालीन सरकार को पाक-साफ भी करार देना चाहते हैं। इस रवैये को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सभी यह जानते हैं कि दोनों ही स्थानों पर दंगाइयों से निपटने के लिए किस स्तर पर कैसे प्रयास किए गए। यह ठीक नहीं कि कांग्रेस समेत कुछ राजनीतिक दल गुजरात दंगों का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करते समय यह ध्यान देने से बच रहे हैं कि इससे देश की जनता के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं जाता। यदि इस तरह के भीषण दंगों के संदर्भ में सही राजनीतिक दृष्टि नहीं अपनाई जाएगी तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि राजनीतिक दल अपनी भूलों से सबक सीखने के लिए तैयार हैं? बेहतर हो कि सभी राजनीतिक दल और विशेष रूप से कांग्रेस यह समझे कि चाहे 1984 में दिल्ली के दंगे हों अथवा गुजरात में हुए दंगे, दोनों ने ही देश को शर्मिदा करने का काम किया। अब कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि इन दंगों से प्रभावित लोगों के घावों पर मरहम कैसे लगे। यह तभी होगा जब दंगों को लेकर वोट बैंक की राजनीति करने से बाज आया जाएगा।
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राहुल की दो गलतियां   
 Thu, 30 Jan 2014

एक समाचार चैनल को दिए गए साक्षात्कार में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दो गलतियां कीं। दस साल पहले संसदीय राजनीति में पदार्पण के बाद यह उनका पहला मीडिया इंटरव्यू था। उनकी पहली गलती थी 1984 दंगों के लिए माफी न मांगना। उनकी इस बात में दम है कि उस समय वह काफी छोटे थे और राजनीति में नहीं उतरे थे। लोग नरेंद्र मोदी को भी 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के लिए तो दोषी नहीं ठहरा रहे हैं। न ही किसी अन्य घटना के लिए उनसे सवाल पूछे जा रहे हैं जो तीन दशक पहले हुई हो और जिसका उनसे कोई वास्ता न हो, लेकिन राहुल गांधी जिस तरह 84 के दंगों के लिए खेद जाहिर करने से भी बचे उसे माफी मांगने से मना कर देने के समान ही समझा जाएगा। राहुल की प्रतिक्त्रिया चौंकाने वाली थी, चूंकि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनकी मां सोनिया गांधी इंदिरा गांधी के सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा उनकी हत्या के बाद भड़के दंगों में सिखों की हत्याओं पर अफसोस जता चुकी थीं। ऐसा नहीं हो सकता कि वह 1984 में अपने पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बयान को भूल गए हों। डॉ. मनमोहन सिंह ने भी इन दंगों के लिए माफी मांगी थी। इसलिए अगर राहुल भी माफी मांग लेते तो वह कांग्रेस की स्थापित लाइन का ही पालन कर रहे होते। अगर राहुल 1984 के दंगों के लिए माफी मांग लेते और कहते कि अगर जरूरत पड़ी तो वह सौ बार माफी मांगेंगे तो इससे सिख भाइयों के जख्मों पर कुछ मरहम लगता। आखिर राहुल गांधी ने यह तो कहा ही कि उनका मानना है कि दंगों और निर्दोष लोगों की हत्याएं जघन्य अपराध है। अगर वह 84 के दंगों पर माफी मांग लेते तो उस चक्त्रव्यूह को काट डालते जिसमें इंटरव्यू लेने वाला उन्हें फंसाने की कोशिश कर रहा था। इसका एक फायदा यह होता कि लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस को सिखों के करीब आने का मौका मिल जाता। आखिरकार उन्होंने स्वीकार ही किया कि कुछ कांग्रेसी इन दंगों में शामिल हो सकते हैं और उनके खिलाफ अदालत में मामले चल रहे हैं। 80 मिनट के इस साक्षात्कार में राहुल गांधी तमाम विवादित मुद्दों से कन्नी काटते रहे, जो बहुत से राजनेताओं के लिए ईष्र्या का विषय हो सकता है। किंतु 2002 और 1984 के दंगों की तुलना में उन्होंने कहा कि गुजरात सरकार ने लोगों को दंगों के लिए भड़काने और आगे धकेलने का काम किया, जबकि 1984 में केंद्र सरकार ने दंगों के नियंत्रण के प्रयास किए थे। 84 के दंगों पर माफी से यह तुलना अनावश्यक हो जाती और एक युवा राजनेता के तौर पर अपनी पार्टी की कमान संभालते वक्त उनकी साफ-सुथरी छवि बनती। या तो राहुल गांधी इस मुद्दे पर सही तरह से सोच नहीं पाए या फिर साक्षात्कार से पहले उन्हें पार्टी के अनुभवी नेताओं द्वारा सही ढंग से बताया नहीं गया था। उनके पास तमाम संसाधन और वरिष्ठ नेताओं का अनुभव था, जो उन्हें साक्षात्कार में फेंके जाने वाले कठिन सवालों के बाउंसरों से बचने का सही उपाय बताय बता सकते थे। इस इंटरव्यू के लिए उन्हें पहले से अच्छी तरह तैयारी कर लेनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दो प्रेस कांफ्रेंसों से पहले उन्हें मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले तमाम संभावित सवालों के जवाब के बारे में बता दिया गया था। इन प्रेस कांफ्रेंस के बारे में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार ने कहा था कि केवल एक ऐसा सवाल था जिसके बारे में वे अनुमान नहीं लगा पाए थे और उसकी तैयारी नहीं की गई थी। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के स्टेज पर आने से पांच मिनट पहले तक उन्हें नवीनतम घटनाक्त्रम से अवगत कराया जाता है, ताकि वह कोई गड़बड़ी न कर दें। एक स्तर पर राहुल गांधी की इस बातचीत से पता चलता है कि वह किस कदर खोल में सिमटे हुए हैं। वह संभवत: मुट्ठी भर लोगों के संपर्क में ही रहते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि प्रणब मुखर्जी की तरह वह खुद ही अखबार पढ़ते हैं या फिर कोई उन्हें उनकी दिलचस्पी की खबरों का सार बता देता है। लगता है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ उनका अधिक मेलजोल नहीं है, जिनके साथ वह महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करते हों और जो उन्हें मुश्किल हालात से उबरने में सलाह देते हों। उनकी दूसरी गलती यह रही कि इंटरव्यू में आने से पहले वह अगले दिन की हेडलाइन के बारे में सोच कर नहीं आए। जब राजनेता मीडिया से मिलते हैं तो उनके मन में स्पष्ट तौर पर होता है कि वे किस मुद्दे पर क्या कहेंगे ताकि वह बयान अगले दिन के अखबारों की सुर्खियां बन सके। राहुल गांधी ने अधिकांश सवालों के जवाब में व्यवस्था बदलने और युवाओं व महिलाओं के सशक्तीकरण की बात कहीं। जब उन्होंने कहा कि वह गंभीर राजनेता हैं और उनकी संजीदगी और नीयत में कोई कमी नहीं है तो ये बातें हेडलाइन नहीं बन सकतीं। इनसे उन्हें सवालों के जवाब देने से बचने का मौका जरूर मिला। हो सकता है यह सवालों में फंसने से बचने की रणनीति हो। राहुल गांधी बहुत सी जिज्ञासाएं शांत नहीं कर पाए। बहुत से राजनेताओं का मानना है कि इसके लिए कौशल जरूरी है, किंतु किसी साक्षात्कार में छाप छोड़ने के लिए ऐसे विचारों से लैस होना आवश्यक है जिनमें अगले दिन की हेडलाइन बनने की कूवत हो। इससे वह जंग को अपनी शतरें पर लड़ने की स्थिति में आ जाते। एक राजनेता सामान्य दिनों में अगर अपने लिए असहज सवालों के उभरने पर किसी तरह बचकर निकल जाए तो इसे उसकी खूबी माना जाता है, लेकिन जब एक पूर्व निर्धारित कार्यक्त्रम के तहत कोई साक्षात्कार होता है तब यह अपेक्षा की जाती है कि हर तरह के सवाल उठेंगे और उनके जवाब देने ही होंगे। इस लिहाज से राहुल गांधी पूरे साक्षात्कार के दौरान अनेक अवसरों पर संतुष्ट नहीं कर सके। कहीं-कहीं वह मुद्दों को टालते हुए दिखाई दिए तो कहीं अटपटे जवाब भी दिए। भ्रष्टाचार, आदर्श घोटाला, शीला दीक्षित से जुड़े मामले पर पूछे गए सवालों के उन्होंने न केवल गोल-मोल जवाब दिए बल्कि हमें सिस्टम को बदलना, बुनियादी मुद्दा यह है.., युवाओं को आगे लाना है, महिलाओं को मजबूती देनी है जैसी बातें कहकर सटीक जवाब देने से कतरा गए। कुछ गंभीर मसलों पर राहुल गांधी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिए तो विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा और नक्सलवाद जैसे अहम मसलों पर उनसे सवाल ही नहीं पूछे गए। ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब देश की जनता राहुल गांधी से चाहती है। इसी तरह उन्होंने यह दावा भी किया कि वह ऐसा बदलाव करने जा रहे हैं जिसके बारे में सोचा भी नहीं गया है, लेकिन हैरत की बात है कि वह इसकी झलक तक भी नहीं दिखा सके। उन्हें इसका अहसास होना चाहिए कि केवल व्यवस्था में बदलाव लाने की बातों से काम चलने वाला नहीं है।