घोटाले वाली गलती
Sat, 11 Jan 2014
आखिरकार केंद्र सरकार कोयला खदानों के आवंटन के मामले में यह मानने के लिए विवश हुई कि उससे किसी न किसी स्तर पर गलती हुई, लेकिन किसी मामले में केवल सच को स्वीकार करना पर्याप्त नहीं। सच्चाई स्वीकार करने से समस्या का समाधान नहीं होता। कोयला खदानों के आवंटन में गलती के लिए जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, क्योंकि कोयला खदानों का आवंटन कुछ ज्यादा ही मनमाने तरीके से किया गया और इसी के चलते इस प्रक्रिया ने एक घोटाले का रूप ले लिया। किसी नीति पर सही ढंग से अमल न हो पाना समझ में आता है, लेकिन आखिर वे कौन से कारण रहे जिनके चलते सर्वथा अपात्र लोगों को कोयला खदानों का आवंटन कर दिया गया? इस मामले में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और सीबीआइ से जांच कराने की जरूरत पड़ी उससे तो ऐसा लगता है कि कोयला खदानों के आवंटन में भी वैसी ही मनमानी की गई जैसी 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में की गई थी। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन भी पहले आओ और पहले पाओ नीति के तहत किए गए, लेकिन इस दौरान बड़ी सफाई से चहेतों को उपकृत कर दिया गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे महज गलती की संज्ञा दी जा रही है वह जानबूझकर किया गया अनुचित काम हो? इस सवाल का जवाब सीबीआइ की जांच के जरिये ही सामने आ सकता है और देखना यह है कि वह इस पूरे मामले में सच्चाई की तह तक पहुंचने में सफल हो सकती है या नहीं? जो भी हो, केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को यह अहसास होना ही चाहिए कि कोयला खदानों के आवंटन में उससे जो कथित गलती हुई उसकी देश को गंभीर कीमत चुकानी पड़ी है। कोयला खदानों का आवंटन एक घोटाले में तब्दील हो जाने के कारण न केवल खदान आवंटन की उसकी नीति का उद्देश्य छिन्न-भिन्न हो गया, बल्कि कोयले का खनन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ और इसके चलते बिजली की किल्लत तो पैदा हुई ही, उद्योग-धंधों को भी नुकसान उठाना पड़ा। हालात ऐसे बने कि कोयले के बड़े भंडार के बावजूद देश को उसका आयात करने के लिए विवश होना पड़ा। अब पता चल रहा है कि इसके आयात में भी घोटाला हो गया। क्या केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंता यह समझेंगे कि किसी बड़ी नीति पर गलत तरीके से अमल के कैसे दुष्परिणाम सामने आते हैं? फिलहाल यह कहना कठिन है कि देश को कोयले की किल्लत से निजात मिल सकेगी या नहीं, क्योंकि केंद्र सरकार को यह तय करना शेष है कि जिन कंपनियों को गलत तरीके से कोयला खनन के लाइसेंस मिले उन्हें रद किया जाए या नहीं? इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की यह आपत्तिसही है कि सरकार को निर्णय लेने में इतनी देरी क्यों हो रही है? केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी गलती के कारण जो समस्याएं उत्पन्न हुईं उनका समाधान शीघ्र निकले। इतना ही नहीं, उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कोयले के पर्याप्त खनन की व्यवस्था कैसे बने। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकार जरूरत भर के कोयले का खनन करने में सक्षम नहीं रह गई है और इसके चलते गंभीर समस्याएं खड़ी हो गई हैं।
एक और घोटाला
Sun, 05 Jan 2014
जानबूझकर घटिया कोयला आयात करने के आरोप में दो कोयला कंपनियों के खिलाफ सीबीआइ की कार्रवाई एक और घोटाले को बयान कर रही है। सीबीआइ की मानें तो खराब किस्म के कोयले का आयात किए जाने से देश को 116 करोड़ का नुकसान पहुंचा। फिलहाल यह कहना कठिन है कि सीबीआइ इस घोटाले की परतें कब तक खोल सकेगी और दोषी लोगों को कोई सजा दिलाने में कामयाब रहेगी या नहीं, लेकिन इस पर गौर किया ही जाना चाहिए कि कोयले के मामले में समृद्ध माने जाने वाले देश को उसका आयात क्यों करना पड़ा? इस आयात का मूल कारण सरकार की नाकाम नीतियां ही हैं। सरकारी कंपनी कोल इंडिया एक लंबे अर्से से जरूरत भर के कोयले का खनन करने में नाकाम है। हमारे नीति-नियंताओं ने कोल इंडिया की इस नाकामी पर समय से चेतने से इन्कार किया। इसका दुष्प्रभाव कोयला आधारित बिजली कंपनियों के साथ-साथ अन्य उद्योगों पर भी पड़ा। यह किसी से छिपा नहीं कि देश के उद्योग धंधे किस तरह बिजली की किल्लत से जूझ रहे हैं। इस किल्लत के लिए एक हद तक सरकार की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। कोल इंडिया की सीमित क्षमता को देखते हुए निजी कंपनियों को कोयला खनन की इजाजत देने की नीति सैद्धांतिक रूप से उचित ही थी, लेकिन इस नीति का पालन कुछ इस तरह से किया गया कि एक बड़े घोटाले ने आकार ले लिया और उसका असर केंद्र सरकार की छवि पर तो पड़ा ही, उद्योग-धंधों पर भी पड़ा, क्योंकि बिजली की किल्लत जस की तस बनी रही। कोयला घोटाला एक सही नीति पर गलत तरीके से अमल का उदाहरण ही है। इस नीति पर मनमाने तरीके से अमल नहीं किया गया होता और अपात्र कंपनियों को कोयला खदानों का आवंटन नहीं हुआ होता तो आज स्थिति कुछ दूसरी ही होती। चूंकि खुद सरकार ही अपनी इस नीति पर सही तरह से अमल नहीं कर सकी इसलिए वह अपना बचाव करने की भी स्थिति में नहीं रह गई है। उसकी ओर से चाहे जैसी दलीलें क्यों न दी जाएं, लेकिन सच्चाई यह है कि कोयले के मामले में जैसी स्थितियां उभर आई हैं उनकी जिम्मेदारी से वह बच नहीं सकती। अब हालत यह है कि कोयला घोटाले की जांच के कारण निजी कंपनियां जहां की तहां खड़ी हैं और यह जगजाहिर ही है कि कोल इंडिया अभी भी इस स्थिति में नहीं आ सकी है कि वह पर्याप्त कोयले का खनन कर सके। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि कोयले के बड़े भंडार वाला कोई देश उसे आयात करने के लिए विवश हो और इस आयात में भी घोटाले देखने को मिलें? यह सब इसीलिए हुआ, क्योंकि जिन लोगों पर सही समय पर सही फैसले लेने की जिम्मेदारी थी उन्होंने अपना काम सही तरह नहीं किया। आश्चर्य नहीं कि कोयले के आयात में घोटाला सामने आने के बाद उसके आयात की प्रक्रिया शिथिल पड़ जाए। यदि ऐसा होता है, जिसके कि आसार भी नजर आ रहे हैं तो इसके दुष्परिणाम बिजली कंपनियों को भी भोगने होंगे और अन्य उद्योगों को भी। इसमें संदेह है कि मौजूदा माहौल में केंद्र सरकार ऐसा कुछ कर सकेगी जिससे देश कोयले की किल्लत से मुक्त हो सके।
आदर्श तरीका
Wed, 08 Jan 2014
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आदर्श सोसाइटी घोटाले में फंसे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के खिलाफ सीबीआइ इसके बावजूद चार्जशीट दाखिल कर सकती है कि राज्यपाल ने उसे इसकी अनुमति देने से इन्कार कर दिया है। सवाल यह है कि यह इन्कार क्यों किया गया और किसके इशारे पर? राज्यपाल इस तरह के मामलों में स्वत: निर्णय लेने में सक्षम नहीं। यह स्वाभाविक ही है कि राज्यपाल महोदय ने या तो महाराष्ट्र सरकार के दबाव में अशोक चव्हाण के खिलाफ सीबीआइ को कार्रवाई करने की अनुमति देने से इन्कार किया या फिर केंद्र सरकार अथवा कांग्रेस नेतृत्व के इशारे पर? कांग्रेस को इस पहेली को सुलझाना ही होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी ही सरकार है और वही केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व भी कर रही है। कांग्रेस को यह पहेली इसलिए और भी सुलझानी होगी, क्योंकि वह इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की मुद्रा में है और अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी के उस बयान के साथ भी खड़ी दिखने की कोशिश कर रही है जिसमें उन्होंने आदर्श सोसाइटी घोटाले की जांच रपट खारिज करने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले पर आपत्तिजताई थी। अगर कांग्रेस इस मामले में राहुल की आपत्तिके साथ है तो उसे यह बताना ही होगा कि आखिर महाराष्ट्र सरकार ने इस जांच रपट पर पुनर्विचार करने के बहाने केवल नौकरशाहों के खिलाफ ही कार्रवाई करने की बात क्यों कही? कहीं इसलिए तो नहीं कि जांच रपट में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का भी नाम आया है? आखिर जो घोटाला नेताओं और नौकरशाही की मिलीभगत से हुआ हो उसमें नेताओं को बख्श देने का क्या मतलब? आखिर ऐसा भी नहीं है कि नौकरशाहों ने नेताओं को अंधेरे में रखकर मनमानी की हो। ऐसा संभव ही नहीं-इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इस घोटाले की जांच करने वाली समिति ने नेताओं और नौकरशाहों दोनों को जिम्मेदार पाया है। बेहतर हो कि कांग्रेस यह समझे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उस तरह से लड़ाई बिलकुल भी नहीं लड़ी जा सकती जिस तरह से महाराष्ट्र सरकार लड़ती हुई दिख रही है। सच तो यह है कि फिलहाल वह ऐसा करने का दिखावा मात्र कर रही है और वह भी इसलिए ताकि राहुल गांधी को अहमियत मिल सके। अच्छा हो कि राहुल गांधी खुद ही यह स्पष्ट करें कि क्या वह आदर्श घोटाले में उसी तरह की कार्रवाई होते हुए देखना चाहते थे जैसी कि हो रही है? महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की तरह से हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी मुश्किल में फंसे नजर आ रहे हैं। वह लगभग हर दिन अपनी सफाई में कुछ न कुछ कह रहे हैं, लेकिन वह उन सवालों का जवाब दे पाने में नाकाम हैं जो उनके समक्ष उठ खड़े हुए हैं। यह कोई बात नहीं हुई कि जब वह कांग्रेस नेतृत्व को अपनी सफाई देने दिल्ली आए तो न सोनिया गांधी ने उनसे मुलाकात की और न ही राहुल गांधी ने। देश को यह बताया ही जाना चाहिए कि आखिर यह मुलाकात क्यों नहीं हो सकी और कांग्रेस नेतृत्व वीरभद्र सिंह के साथ है अथवा उनके खिलाफ? भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर गंभीर आरोपों से घिरे लोगों के खिलाफ कार्रवाई के बजाय लीपापोती को स्वीकार नहीं किया जा सकता। लगता है कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार से लड़ने का आदर्श तरीका अभी सीखना शेष है।
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