Friday 24 October 2014

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह




खामोशी नहीं, जवाब चाहिए

Wed, 24 Sep 2014

'मैंने अपना कर्तव्य निभाया'। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन आरापों के बचाव में यह सफाई दी जिनमें कहा गया है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटालों और कोयला खदानों की बिक्री में भ्रष्टाचार की उन्हें जानकारी थी और उन्होंने कुछ नहीं किया। यह कहने की जरूरत नहीं है कि वह पाक-साफ हैं, लेकिन यह उन्हें इस आरोप से बरी नहीं कर देता कि अपनी नाक के नीचे चल रहे भ्रष्टाचार में उन्होंने साथ दिया। तत्कालीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय की रिपोर्ट इतनी नुकसानदेह है कि पूर्व प्रधानमंत्री को अपनी विश्वसनीयता बचाने के लिए अपना पक्ष रखना पड़ेगा-अगर ऐसा कोई पक्ष है। यह दलील काफी नहीं है कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पैसे नहीं बनाए या वह इससे कहीं भी सीधे-सीधे नहीं जुड़े हैं। उन्हें अपना बचाव करना पड़ेगा कि वह लंबे समय तक चले भ्रष्टाचार का साथ देते दिखाई देते हैं। जब कोई भी इस भ्रष्ट सौदे को साफ देख सकता था, उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। वह कैसे कह सकते हैं कि वह अपना कर्तव्य निभा रहे थे। कम से कम उस समय उन्हें कार्रवाई करनी चाहिए थी जब सीबीआइ ने सब पता लगा लिया था कि घोटाला शुरू कैसे हुआ और कहां तक हुआ और इसकी रिपोर्ट उनके कार्यालय को दे दी थी।
उनकी यह दलील कि उन्होंने अपनी ड्यूटी की, एक ऐसा बयान है जो कहीं नहीं ले जाता। घोटाले के जिम्मेदार लोग इसे लंबे समय तक बेरोकटोक करते रहे। प्रधानमंत्री कार्यालय को जब एक बार शुरुआती रिपोर्ट मिल गई तो उसे तुरंत सक्त्रिय हो जाना चाहिए था। उसकी निष्कि्त्रयता से कई सवाल उठ खड़े होते हैं जिनका जवाब चाहिए और सिर्फ खामोशी कोई उत्तर नहीं है और न ही इससे आरोपों की गंभीरता कम होगी। यह साफ है कि जो कुछ हो रहा था उसकी जानकारी उन्हें थी और राजनीतिक वजहों से उन्होंने चुप रहना पसंद किया। अगर दो टूक शब्दों में कहा जाए तो वह किसी भी तरह कुर्सी पर बने रहना चाहते थे। यह लगभग साबित हो गया कि उन्हें सामने रखकर वे तत्व पैसा बना रहे थे जो 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी के आवास के नाम से पहचाने जाते थे। यह उन्हें इससे बरी नहीं करता कि भ्रष्ट सौदे किए जा रहे थे और वह अपना मुंह फेरकर दूसरी ओर देख रहे थे। कोई भी उन्हें घोटाले का हिस्सा होने का दोषी नहीं मानता, लेकिन कोई दावे से यह भी नहीं कह सकता कि सभी चीजों पर उनकी नजर इस तरह थी जैसे वह कुछ कर नहीं सकते थे। वह कई बार कह चुके हैं कि अभी उनके विरोध में जो कहा जा रहा है उसके मुकाबले आने वाली पीढ़ी बेहतर ढंग से उनका मूल्यांकन करेगी। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि तीस-चालीस साल बाद लोगों की क्या समझ होती है। तब भी लोग उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री ही बताएंगे।
यह दुख की बात है कि राजनीतिक लड़ाई के कारण कोई लोकपाल नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि घोटाले की तह में पहुंचने और यह ढूंढ़ निकालने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि अगर पूर्व पधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं थे तो वह कौन था जो इस खुलकर चले रहे भ्रष्टाचार को होते हुए देख रहा था। यह संभव है कि जो भ्रष्टाचार चल रहा था उसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय जिम्मेदार नहीं हो, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि उसे इसकी जानकारी नहीं थी कि क्या हो रहा है। भ्रष्ट सौदे किए गए, यह साबित तथ्य हो चुका है। मामले की आगे जांच नहीं करना और दोषी का पता नहीं लगाना राष्ट्र के लिए अनुचित है। यह ढ़ूंढ़ना कठिन नहीं है कि किस पर दोष लगाया जाए, क्योंकि किसी ने तो इस सौदे की स्वीकृति दी होगी और किसी की नजर इस पर होगी कि इसका पालन हो रहा है। यह खतरा उठाकर भी कि क्लीन चिट देने के लिए उस पर राजनीतिक दबाब भी लाया जा सकता है, सीबीआइ को यह काम सौंपा जा सकता है। यह अफसोस की बात है कि किसी ऊंचे पद पर बैठे अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि राजनेता सौदा करने में खुद शामिल रहते हैं। सिर्फ इस कारण कि देश में एक कमजोर प्रधानमंत्री था, सरकार कार्रवाई नहीं करने का फैसला करती है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि घोटाला नहीं हुआ और राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों ने पैसा नहीं बनाया। अब सरकार बदल गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार यह कह रहे हैं कि वे सिस्टम को साफ करेंगे। इस लिहाज से अभी तक कुछ कार्रवाई शुरू हो जानी चाहिए थी। ठीक बात है कि सरकारी नौकरों को समय पर आना चाहिए, लेकिन यह कोई ऐसा बदलाव नहीं है जिससे लोग संतुष्ट हो जाएं जिन्हें उम्मीद है कि उन राजनेताओं और नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई हो जो घोटाले में शामिल हैं। कोई प्रत्यक्ष सुबूत नहीं है, लेकिन लोगों को लगता है कि 10 जनपथ पिक्चर में है। पर्दे के पीछे क्या चल रहा था, इसकी कहानी बताने के लिए जो किताबें आई हैं उससे इतना कुछ पता चल गया है कि नामी लोगों की एक उच्चपदस्थ टीम इस सारे मामले की जांच करने के लिए नियुक्त की जा सके और लोगों के सामने यह लाया जा सके कि राजनीतिज्ञ और नौकरशाहों ने मिलकर पूरी तरह देश को लूटा है।
कहा जाता है कि बिना किसी जिम्मेदारी के सोनिया गांधी ने प्रशासन चलाया। गोपनीय फाइल उनके पास जाती थी। हालांकि आरोप सार्वजनिक हो गए, लेकिन कोई ठोस दलील उनके या मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल रहे लोगों की तरफ से नहीं आई है। ऑडिटर जनरल ने जो इंटरव्यू दिया है वह उनकी रिपोर्ट से ज्यादा हानिकारक है। उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया है कि वे प्रधानमंत्री से मिले थे और काफी कुछ बातें उन्हें मौखिक रूप से बताई थीं। इसके अलावा कि वह प्रधानमंत्री पद पर बने रहना चाहते थे, यह कहना मुश्किल है कि मनमोहन सिंह ने कार्रवाई क्यों नहीं की? सोनिया गांधी ने उन्हें पद पर बनाए रखने के लिए सब कुछ किया, लेकिन वह बुरी तरह विफल रहे, जैसे कि कुर्सी लोगों की इस उम्मीद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो कि वह भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ करेंगे। यह अफसोस की बात है कि मनमोहन सिंह जैसे आदमी ने कुर्सी पर बने रहने के लिए समझौते किए। आने वाली पीढ़ी यही मूल्यांकन करेगी कि उन्हें कुर्सी नहीं छोड़नी पड़े, इसके लिए वह पद की जरूरत के हिसाब से समय पर खड़े नहीं हुए।
[लेखक कुलदीप नैयर, प्रख्यात स्तंभकार हैं]
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